________________ सूचना मिलती है, अतः इनके सम्बंध में भी विचार कर लेना आवश्यक है। श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगमों में छेद सूत्रों के अंतर्गत आचारकल्प (दशाश्रुतस्कंध-आचारदशा ) और जीतकल्प के उल्लेख उपलब्ध हैं। यापनीय परम्परा के एक अन्य ग्रंथ छेदशास्त्र में भी प्रायश्चित्त के संदर्भ में आचारकल्प और जीतकल्प का उल्लेख उपलब्ध होता है। यह स्पष्ट है कि आचारकल्प और जीतकल्प मुनि जीवन के आचार नियमों तथा उनसे सम्बंधित प्रायश्चित्तों का वर्णन करते हैं। पंचाचाराधिकार में तपाचार के संदर्भ में जो इन दो ग्रंथों के उल्लेख हैं, वे वस्तुतः श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आचारदशा और जीतकल्प ही हैं। यह भी स्मरण रखना चाहिए कि दिगम्बर आचार्यों ने यापनीय परम्परा के सम्बंध में स्पष्ट रूप से कहा है कि ये कल्पसूत्र का वाचन करते हैं। स्मरण रहे कि आचारकल्प और आठवां अध्ययन पर्युषणाकल्प के नाम से प्रसिद्ध है और पर्युषण पर्व के . अवसर पर श्वेताम्बर परम्परा में पढ़ा जाता है। " इस प्रकार देखते हैं कि मूलाचार में जिन ग्रंथों का निर्देश किया गया है लगभग वे सभी ग्रंथ आज भी श्वेताम्बर परम्परा में मान्य और प्रचलित हैं। इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि आगमिक ग्रंथों के संदर्भ में मूलाचार की परम्परा श्वेताम्बर परम्परा के निकट है। यापनीयों के संदर्भ में यह स्पष्ट है कि वे श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगम साहित्य को मान्य करते थे। यह,हम पूर्व में भी सूचित कर चुके हैं कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में जिन ग्रंथों का निर्माण ई. सन् की दूसरी शती तक हुआ था, उसके उत्तराधिकारी श्वेताम्बर और यापनीय- दोनों ही रहे हैं। अतः मूलाचार में श्वेताम्बर परम्परा में मान्य ग्रंथों का उल्लेख यही सिद्ध करता है कि वह यापनीय पररम्परा का ग्रंथ है। संदर्भ मूलाचार (सं. ज्ञानमती माताजी, भारतीय ज्ञानपीठ) भूमिका, पृ.११, साथ ही देखें - डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन की प्रधान सम्पादकीय, पृ.६ विस्तृत चर्चा के लिए देखें- जैन साहित्य और इतिहास, पं.नाथूरामजी प्रेमी, संशोधित साहित्यमाला, ठाकुरद्वारा बम्बई, 1956, पृ. 548-553