________________ रचना से लिया है, किंतु मेरी दृष्टि में यह उचित नहीं है। प्रथम तो समन्तभद्र का काल भी विवादास्पद है, उसे किसी भी स्थिति में मूलाचार का पूर्ववर्ती मानना समुचित नहीं है। वस्तुतः, थुदि नाम से कोई प्राकृत रचना ही रहनी चाहिए। श्वेताम्बर परम्परा में थुई के नाम से वीरत्थुई और देविन्दत्थओ इन दो का उल्लेख मिलता है। वीरत्थुई सूत्रकृतांग का भी एक अध्याय है, जबकि देविन्दत्थओ की गणना दस प्रकीर्णकों में की जाती है। वैसे प्रकीर्णकों में ही वीरत्थओ (वीरस्तव) एक स्वतंत्र ग्रंथ भी है और इसकी विषयवस्तु सूत्रकृतांग के छठवें अध्याय वीरत्थुई से भिन्न है। जैसा कि हमने पूर्व-चर्चा में देखा, मूलाचार की प्रस्तुत गाथा में जिन ग्रंथों के नामों का उल्लेख है, उनमें अधिकतर श्वेताम्बर परम्परा के प्रकीर्णकों के नामों से मिलते हैं, अतः प्रस्तुत गाथा में थुई नामक ग्रंथ से तात्पर्य प्रकीर्णकों में समाविष्ट देविन्दत्थओ और वीरत्थओ से ही होना चाहिए। यद्यपि मेरी दृष्टि में 'थुदि' से मूलाचार का तात्पर्य या तो सूत्रकृतांग के छठवें अध्याय में अंतर्निहित 'वीरत्थुई' से रहा होगा या फिर देविन्दत्थओ नामक प्रकीर्णक से होगा, क्योंकि यह ईसा पूर्व प्रथम शती में रचित एक प्राचीन प्रकीर्णक है (इस सम्बंध में मेरे द्वारा सम्पादित एवं आगम संस्थान द्वारा प्रकाशित 'देविंदत्थओ' की भूमिका देखें)। प्रकीर्णकों में समाहित वीरत्थुओ मुझे मूलाचार की अपेक्षा परवर्ती रचना लगती है। पच्चक्खाण नामक ग्रंथ से मूलाचार का मन्तव्य क्या है, यह भी विचारणीय है। दिगम्बर परम्परा में पच्चक्खाण नामक कोई ग्रंथ है- ऐसा ज्ञात नहीं होता है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा में प्रकीर्णकों के अंतर्गत आउरपच्चक्खाण और महापच्चक्खाण नामक दो ग्रंथ हैं। अतः, स्पष्ट है कि पच्चक्खाण से मूलाचार का तात्पर्य आउरपच्चक्खाण तथा महापच्चक्खाण नामक ग्रंथों से ही है। मूलाचार के टीकाकार वसुनन्दी ने इसे स्पष्ट नहीं किया है। केवल इतना ही कहकर छोड़ दिया है कि विधि और चतुर्विध परित्याग का प्रतिपादक ग्रंथ, किंतु ऐसा कोई ग्रंथ श्वेताम्बर या दिगम्बर परम्परा में रहा है- ऐसा ध्यान में नहीं आता। जब मूलाचार में आउरपच्चक्खाण की ही 70 गाथाएं मिल रही है, इसके अतिरिक्त महापच्चक्खाण की भी गाथाएं उसमें थी ही, इससे सिद्ध होता है कि पच्चक्खाण से मूलाचारकार का तात्पर्य आउरपच्चक्खाण और महापच्चक्खाण से ही है। (108)