________________ आवश्यकनियुक्ति की 80 से अधिक गाथाएं स्पष्टतः मिलती हैं। अतः, यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत गाथा में नियुक्ति का जो उल्लेख है, वह श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध नियुक्तियों से ही है। यह भी स्पष्ट है कि अधिकांश नियुक्तियां भद्रबाहु द्वितीय के द्वारा रचित हैं और इन भद्रबाहु का समय विक्रम की दूसरी शताब्दी है। इसमें एक बात अवश्य स्पष्ट होती है कि मूलाचार विक्रम की छठवीं शताब्दी के पूर्व की रचना नहीं है। मूलाचारकार यह कहकर- 'अब मैं आचार्य परम्परा से यथागत आवश्यकनियुक्ति को संक्षेप में कहूंगा', इस तथ्य की स्वयं पुष्टि करता है कि उसके समक्ष आवश्यकनियुक्ति नामक ग्रंथ रहा है। दूसरे, अस्वाध्याय काल में पढ़ने योग्य ग्रंथों की सूची में नियुक्ति का उल्लेख भी इसी तथ्य को सूचित करता है। दिगम्बर परम्परा में नियुक्तियां लिखी गईं- ऐसा कोई भी संकेत उपलब्ध नहीं है, अतः मूलाचार में नियुक्ति से तात्पर्य श्वेताम्बर परम्परा में भी प्रचलित नियुक्तियों से ही है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि श्वेताम्बर और यापनीय आगमिक ग्रंथ एक ही थे, उनमें मात्र शौरसेनी और महाराष्ट्री का भाषा-भेद था। मूलाचार में जिस तीसरे ग्रंथ मरणविभक्ति का उल्लेख हुआ है, वह भी श्वेताम्बर परम्परा के दस प्रकीर्णकों में से एक है। यह मरणविभक्ति और मरणसमाधि- इन दो नामों से उल्लिखित है। स्वयं ग्रंथकार ने भी इसे मरणविभक्ति कहा है। इससे सिद्ध होता है कि मूलाचार द्वारा निर्दिष्ट मरणविभक्ति श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध मरणविभक्ति ही है। दिगम्बर परम्परा में मरणविभक्ति नाम का कोई ग्रंथ रहा होऐसा उल्लेख मुझो देखने को नहीं मिला है, यद्यपि मूलाचार में उल्लिखित मरणविभक्ति वर्तमान मरणविभक्ति का एक भाग मात्र थी, क्योंकि वर्तमान मरणविभक्ति आठ प्राचीन ग्रंथों का संकलन है। __ जिस चौथे ग्रंथ का उल्लेख हमें मूलाचार में मिलता है, वह संग्रह है। संग्रह से ग्रंथकार का क्या तात्पर्य है- यह विचारणीय है। पंच-संग्रह के नाम से कर्मसाहित्य सम्बंधी ग्रंथ श्वेताम्बर एवं दिगम्बर- दोनों ही परम्पराओं में उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त, दिगम्बर परम्परा में पंचास्तिकाय को भी ‘पंचत्थिकायसंगहसुत्त' कहा गया है। स्वयं इस ग्रंथ के कर्ता ने भी इस ग्रंथ को संग्रह कहा है, (106)