________________ उपर्युक्त ग्रंथों से संकलित है। आश्चर्य तो यह लगता है कि हमारी दिगम्बर परम्परा के विद्वान् मूलाचार में कुन्दकुन्द के ग्रंथों से मात्र 21 गाथाएं समान रूप से उपलब्ध होने पर इसे कुन्दकुन्द की कृति सिद्ध करने का साहस करते हैं और जिस परम्परा के ग्रंथों से इसकी आधी से अधिक गाथाएं समान रूप से मिलती हैं, उसके साथ इसकी निकटता को दृष्टि से ओझल कर देते हैं। मूलाचार की रचना उसी परम्परा में सम्भव हो सकती है, जिस परम्परा में उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यक नियुक्ति, पिण्ड नियुक्ति, महापच्चक्खाण, आउरपच्चखाण आदि ग्रंथों के अध्ययन-अध्यापन की परम्परा रही है। वर्तमान की खोजों से यह स्पष्ट हो चुका है कि यापनीय परम्परा में इन ग्रंथों का अध्ययन होता था। इसी प्रकार, यापनीय परम्परा में अपराजितसूरि ने उत्तराध्ययन और दशवैकालिक पर टीकाएं लिखकर इसी बात की पुष्टि की है कि इसका अध्ययन और अध्यापन उनकी परम्परा में प्रचलित था। जो परम्परा आगम ग्रंथों का सर्वथा लोप मानती है, उस परम्परा में मूलाचार जैसे ग्रंथ की रचना सम्भव नहीं प्रतीत होती। यह स्पष्ट है कि जहां दक्षिण भारत में विकसित दिगम्बर अचेल परम्परा आगमों के विच्छेद की बात कर रही थी, वहीं उत्तर भारत में विकसित होकर दक्षिण की ओर जाने वाली इस यापनीय-परम्परा में आगमों का अध्ययन बराबर चल रहा था। अतः, इससे यही सिद्ध होता है कि मूलाचार की रचना कुन्दकुन्द की दिगम्बर परम्परा में न होकर यापनीयों की अचेल परम्परा में हुई है। स्वयं मूलाचार के पांचवें पंचाचार नामक अधिकार की 79 वीं गाथा में 13 और 387 वीं गाथा में 14 आचारकल्प, जीतकल्प, आवश्यकनियुक्ति, आराधना, मरणविभक्ति, पच्चक्खाण, आवश्यक धर्मकथा (ज्ञाताधर्मकथा) आदि ग्रंथों के अध्ययन के स्पष्ट निर्देश हैं। मेरी दृष्टि से उक्त गाथाओं में निम्न ग्रंथों का निर्देश होता है - 1. आराधना, 2. नियुक्ति, 3. मरणविभक्ति, 4. संग्रह (पंचसंग्रह), 5. स्तुति (देविन्दत्थुई),६. प्रत्याख्यान, 7. आवश्यक और 8. ज्ञाताधर्मकथा। सर्वप्रथम यह विचारणीय है कि इन ग्रंथों में कौन-कौनसे ग्रंथ श्वेताम्बर परम्परा में मान्य एवं उपलब्ध हैं और कौन-कौनसे दिगम्बर परम्परा में मान्य एवं (104)