________________ अध्याय को नियुक्ति' नाम से ही निर्दिष्ट किया गया है। 8. मूलाचार के मुनियों के लिए 'विरत' और आर्यिकाओं के लिए 'विरती' शब्द का उपयोग किया गया है (गाथा 180) / मुनि- आर्यिका, श्रावक-श्राविका मिलकर चतुर्विध संघ होता है। चौथे समाचार अधिकार (गाथा 187) में कहा है कि अभी तक कहा हुआ- यह यथाख्यातपूर्व समाचार आर्यिकाओं के लिए भी यथायोग्य जानना 0 / इसका अर्थ यह हुआ कि ग्रंथकर्ता मुनियों और आर्यिकाओं को एक ही श्रेणी में रखते हैं, जबकि आ. कुन्दकुन्द स्त्री-प्रव्रज्या का निषेध करते हैं, फिर 166 वीं गाथा में कहा है कि इस प्रकार की चर्चा, जो . मुनि और आर्यिकाएं करती हैं, वे जगत्पूजा, कीर्ति और सुख प्राप्त करके 'सिद्ध' होती हैं। 184 वीं गाथा में कहा है कि आर्यिकाओं का गणधर गंभीर, दुर्धर्ष, अल्पकौतूहल, चिरप्रव्रजित और गृहीतार्थ होना चाहिए। इससे जान पड़ता है कि आर्यिकाएं मुनिसंघ के ही अंतर्गत हैं और उनका गणधर मुनि ही होता है। 'गणधरो मर्यादोपदेशकः प्रतिक्रमणाद्याचार्यः (टीका)। इन सब बातों से मूलाचार कुन्दकुन्द परम्परा का ग्रंथ नहीं मालूम होता, . अत: मूलाचार यापनीय परम्परा का ग्रंथ है, यह निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है। - इस प्रकार हम देखते हैं कि मूलाचार को यापनीय परम्परा का ग्रंथ मानने के अनेक प्रमाण हैं। पं. नाथूरामजी प्रेमी ने अपने उपर्युक्त विवेचन में उन सभी तथ्यों का संक्षेप में उल्लेख कर दिया है, जिनके आधार पर मूलाचार को कुन्दकुन्द की अचेल-परम्परा के स्थान पर यापनीयों की अचेल-परम्परा का ग्रंथ माना जाना चाहिए। मैं पं. नाथूरामजी प्रेमी द्वारा उठाए गए इन्हीं मुद्दों पर विस्तार से चर्चा करना चाहूंगा। सर्वप्रथम मूलाचार और भगवती आराधना की अनेक गाथाएं समान और समान अभिप्राय को प्रकट करने वाली होने के कारण प्रेमी जी ने इसे भगवतीआराधना की परम्परा का ग्रंथ माना है। प्रेमीजी ने इस तथ्य का भी संकेत किया है कि मूलाचार के समान ही भगवती आराधना के भी कुछ ऐसे मन्तव्य हैं, जो अचेल दिगम्बर परम्परा से मेल नहीं खाते हैं और यदि भगवती आराधना दिगम्बर परम्परा का ग्रंथ न होकर यापनीय परम्परा का ग्रंथ सिद्ध होता