________________ मूलाचार के आधार ग्रंथ __आर्यिका ज्ञानमतीजी ने भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित मूलाचार की भूमिका में यह लिखा है कि आचारांग के आधार पर चौदह सौ गाथाओं में ग्रंथकर्ता ने इस ग्रंथ की रचना की, ' किंतु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि यह ग्रंथ आचारांग और विशेष रूप से उसके प्राचीनतम अंश प्रथम श्रुतस्कंध के आधार पर तो बिल्कुल ही नहीं लिखा गया है। जिन ग्रंथों के आधार पर मूलाचार की रचना हुई है, वे श्वेताम्बर परम्परा के मान्य बृहद्प्रत्याख्यान, आतुरप्रत्याख्यान, आवश्यकनियुक्ति, जीवसमास आदि हैं, जिनकी सैकड़ों गाथाएं शौरसेनी रूपांतरण के साथ इसमें गृहीत की गई हैं। वस्तुतः, मूलाचार श्वेताम्बर परम्परा में मान्य नियुक्तियों एवं प्रकीर्णकों की विषयवस्तु एवं सामग्री से निर्मित है। मूलाचार की परम्परा यद्यपि हमें स्पष्ट रूप से इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि यह ग्रंथ श्वेताम्बर परम्परा का ग्रंथ नहीं माना जाना चाहिए, क्योंकि इसमें मुनि के अचेलकत्व पर जितना अधिक बल दिया गया है, उतना श्वेताम्बर परम्परा के आचारांग को छोड़कर किसी भी आचारपरक ग्रंथ में नहीं मिलता। इसे श्वेताम्बर परम्परा का ग्रंथ मानने में दूसरी कठिनाई यह है कि इसकी भाषा न तो अर्द्धमागधी है और न महाराष्ट्री प्राकृत। इसमें अर्द्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत में रचित श्वेताम्बर आगम ग्रंथों की सैकड़ों गाथाएं शौरसेनी रूपांतरण में मिलती हैं, किंतु इस आधार पर इसे श्वेताम्बर परम्परा का ग्रंथ नहीं कह सकते, क्योंकि अभी तक श्वेताम्बर परम्परा का कोई भी ग्रंथ शौरसेनी प्राकृत में लिखा गया हो, यह ज्ञात नहीं होता। यह सत्य है कि शौरसेनी प्राकृत में लेखन कार्य मुख्यतः अचेल परम्परा में ही हुआ है। किंतु इसमें कुछ ऐसे तथ्य हैं , जिनके आधार पर यह भी नहीं कहा जा सकता कि यह दिगम्बर परम्परा का ग्रंथ है। सर्वप्रथम तो इसमें आर्यिका को श्रमण के समकक्ष मानकर उसकी मुक्ति का जो विधान किया गया है, वह इसे दिगम्बर ग्रंथ मानने में बाधा उत्पन्न करता है। दिगम्बर परम्परा के बहुश्रुत विद्वान् पं. नाथूराम प्रेमी ने अनेक तर्कों के आधार पर कहा है कि यह दिगम्बर परम्परा