SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पत्तेयबुद्धसाहू, नमिमो जे भासिउं सिवं पत्ता। पणयालीसं इसिभासियाई अज्झयणपवराई // 45 // -ऋषिमण्डलप्रकरणम्, आत्मवल्लभ ग्रंथमाला, ग्रंथांक 13, बालापुर, गाथा 44, 45 पण्हावागरणदसासु णं ससमय परसमय पण्णवय . पतेअबुद्धविविहत्थभासाभासियाणं। - समवायांग, सूत्र 546. औपपातिकसूत्र 38 बृहदारण्यक उपनिषद्, तृतीय अध्याय, पंचम ब्राह्मण, 1 36. मूलाचार : एक विवेचन मूलाचार का महत्त्व मूलाचार को वर्तमान में दिगम्बर जैन परम्परा में आगम स्थानीय ग्रंथ के रूप में मान्य किया जाता है। यह ग्रंथ मुख्यतः अचेल परम्परा के साधु-साध्वियों के आचार से सम्बंधित है। यह भी निर्विवाद सत्य है कि दिगम्बर परम्परा में इस ग्रंथ का उतना ही महत्त्व है, जितना कि श्वेताम्बर परंम्परा में आचारांग का। यही कारण है कि धवला और जयधवला (दसवीं शताब्दी) में इसकी गाथाओं को आचारांग की गाथा कहकर उद्धृत किया गया है। यह स्पष्ट है कि दिगम्बर परम्परा में जब आचारांग को लुप्त मान लिया गया, तो उसके स्थान पर मूलाचार को ही आचारांग के रूप में देखा जाने लगा। वस्तुतः, आचारांग के प्राचीनतम अंश प्रथम श्रुतस्कंध में अचेलता का प्रतिपादन होते हुए भी मुनि के वस्त्र-ग्रहण सम्बंधी कुछ उल्लेख, फिर चाहे वे आपवादिक स्थिति के क्यों न हो, पाए ही जाते हैं। यही कारण था कि अचेलकत्व पर अत्यधिक बल देने वाली यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा उसे अपने सम्प्रदाय में मान्य न रख सकी और उसके स्थान पर मूलाचार को ही अपनी परम्परा का मुनि आचार सम्बंधी ग्रंथ मान लिया। (98)
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy