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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-92 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-88 आदि के रूप में यदि परम्परा के विरोध में स्वर मुखरित हुए और खरतरगच्छ, तपागच्छ आदि अस्तित्व में भी आये, किन्तु ये सभी यति परम्परा के प्रभाव से अपने को अलिप्त नहीं रख सके। श्वेताम्बर-परम्परा में 8वीं शती से चैतन्यवास का विरोध प्रारम्भ हुआ था। आचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रन्थ 'सम्बोधप्रकरण' के द्वितीय अध्याय में इन चैत्यवासी यतियों के क्रियाकलापों एवं आचार शैथिल्य पर तीखे व्यंग्य किये और उनके विरूद्ध क्रान्ति का शंखनाद किया, किन्तु युगीन परिस्थितियों के परिणामस्वरूप हरिभद्र की क्रान्ति के ये स्वर भी अनसुने ही रहे। यति-वर्ग सुविधावाद, परिग्रह-संचय आदि की प्रवृत्तियों में यथावत् जुड़ा रहा। हमें ऐसा कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता, जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि आचार्य हरिभद्र की इस क्रान्तिधर्मिता के परिणामस्वरूप चैत्यवासी यतियों पर कोई व्यापक प्रभाव पड़ा हो। श्वेताम्बर-परम्परा में चैत्यवास का प्रबल विरोध चन्द्रकुल के आचार्य वर्द्धमान सुरि ने किया। उन्होंने चैत्यवास के विरुद्ध सर्वप्रथम सुविहित-मुनि-परम्परा की पुनः स्थापना की। यह परम्परा आगे चलकर खरतरगच्छ के नाम से विख्यात हुई। इ का काल लगभग 11वीं शताब्दी माना जाता है। यद्यपि सुविहित मार्ग की स्थापना से आगम पर आधारित मुनि-आचार-व्यवस्था को नया जीवन तो प्राप्त हुआ, कि तु पूर्व परम्परा नामशेष नहीं हो पाई। अनेक स्थलों पर श्वेताम्ब -यतियों का इतना प्रभाव था कि उनके अपने क्षेत्रों में किसी अन्य सुविहित-म नि का प्रवेश भी सम्भव नहीं हो पाता था। चैत्यवासी यति-परम्परा तो नामश ष नहीं हो पाई, अपितु हुआ यह कि उस यति-परंम्परा के प्रभाव से संविग्न-मुनि-परम्परा पुनः-पुनः आक्रान्त होती रही और समय-समय पर पुनः क्रियोद्धार की आवश्यकता बनी रही। इस प्रकार, हम देखते हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में प्रत्येक सौ-डेढ़ सौ वर्ष के पश्चात् पुनः पुनः आचार-शैथिल्य के विरुद्ध और संविग्न मार्ग की स्थापना के निमित्त धर्म क्रान्तियाँ होती रही। खरतरगच्छ की धर्मक्रान्ति के पश्चात अंचलगच्छ एवं तपागच्छ के आचार्यों द्वारा पुनः क्रियोद्धार किया गया और आगम-अनुकूल मुनि-आचार की स्थापना के प्रयत्न वि.सं. 1969 में आचार्य आर्यरक्षित (अंचलगच्छ) तथा वि.सं. 1285 में आचार्य जगच्चन्द्र (तपागच्छ) के द्वारा
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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