________________ जैन धर्म एवं दर्शन-91 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-87 से बढ़ावा मिला तथा श्वेताम्बर और दिगम्बर- दोनों ही परम्पराओं में मठ या चैत्यवासी और वनवासी-ऐसी दो परम्पराओं का विकास हुआ। मन्दिर और मूर्ति के निर्माण तथा उसकी व्यवस्था हेतु भूमिदान आदि भी प्राप्त होने लगे और उनके स्वामित्व का प्रश्न भी खड़ा होने लगा। प्रारम्भ में जो दान-सम्बन्धी अभिलेख या ताम्रपत्र मिलते हैं, उनमें दान मन्दिर, प्रतिमा या संघ को दिया जाता था- ऐसे उल्लेख हैं, लेकिन कालान्तर में आचार्यों के नाम पर दानपत्र लिखे जाने लगे, परिणामस्वरूप मुनिगण न केवल चैत्यवासी बन बैठे, अपितु वे मठ, मन्दिर आदि की व्यवस्था से जुड़ गये। सम्भवतः यही कारण रहा है कि दान आदि उनके नाम से प्राप्त होने लगे। इस प्रकार, मुनि-जीवन में सुविधावाद और आचार-शैथिल्य का विकास हुआ। आचार-शैथिल्य ने श्वेतामबर और दिगम्बर दोनों की परम्पराओं में अपना आधिपत्य कर लिया। श्वेताम्बर में यह चैत्यवासी यति-परम्परा के रूप में और दिगम्बर में षठवासी भट्टारक परम्परा के रूप में विकसित हुई, यद्यपि इस परम्परा ने जैन धर्म एवं संस्कृति को बचाये रखने में तथा जैन-विद्या के संरक्षण और समाज सेवा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। चिकित्सा के क्षेत्र में भी जैन-यतियों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, किन्तु दूसरी ओर सुविधाओं के उपयोग, परिग्रह के संचयन ने उन्हें अपने श्रमण-जीवन से च्युत भी कर दिया। इस परम्परा के विरोध में दिगम्बरआचार्य कुन्दकुन्द ने लगभग 6ठीं शती में और श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्र ने 8वीं शती में क्रान्ति के स्वर मुखर लिये। आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा जो क्रान्ति की गई, वह मुख्य रूप से परम्परागत धर्म के स्थान पर आध्यात्मिकधर्म के सन्दर्भ में थी। यद्यपि उन्होंने 'अष्टपाहुड' में विशेष रूप से 'चारित्रपाहुड', 'लिंगपाहुड' आदि में आचार-शैथिल्य के सन्दर्भ में भी अपने स्वर मुखरित किये थे, किन्तु ये स्वर अनसुने ही रहे, क्योंकि परवर्ती काल में भी यह भट्टारक-परम्परा पुष्ट ही होती रही। आचार्य कुन्दकुन्द के पश्चात् उनके ग्रन्थों के प्रथम टीकाकार आचार्य अमृतचन्द ने जैन-संघ को एक आध्यात्मिक-दृष्टि देने का प्रयत्न किया जिसका समाज पर कुछ प्रभाव पड़ा, किन्तु भट्टारक-परम्परा की यथावत रूप में महिमा मण्डित होती रही / इसी प्रकार, श्वेताम्बर-परम्परा में भी सुविहितमार्ग, संविग्नपक्ष