________________ जैन धर्म एवं दर्शन-90 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-88 समर्थन देखा जाता है। यह सत्य है कि कोई भी आचार-व्यवस्था या साधना-पद्धति अपवाद मार्ग को पूरी तरह अस्वीकृत करके नहीं चलती। देश, कालगत परिस्थितियां कुछ ऐसी होती हैं, जिसमें अपवाद को मान्यता देनी पड़ती है, किन्तु आगे चलकर अपवाद-मार्ग की यह व्यवस्था सुविधावाद और आचार-शैथिल्यता का कारण बनती है, जो सुविधा-मार्ग से होती हुई आचार-शैथिल्यता की पराकाष्ठा तक पहुंच जाती है। जैन-संघ में ऐसी परिस्थितियाँ अनेक बार उत्पन्न हुई और उसके लिए समय-समय पर जैनाचार्यों को धर्मक्रान्ति या क्रियोद्धार करना पड़ा। ___ आचार-व्यवस्था को लेकर विशेष रूप से सचेल और अचेल-साधना के सन्दर्भ में प्रथम विवाद वी.नि.सं. 606 या 609 तदनुसार विक्रम की प्रथम-द्वितीय शताब्दी में हुआ। यह. विवाद मुख्यतः आर्य शिवभूति और आर्य कृष्ण के मध्य हुआ था। जहाँ आर्य शिवभूति ने अचेल-पक्ष को प्रमुखता दी, वहीं आर्य कृष्ण सचेल पक्ष के समर्थक रहे। आर्य शिवभूति की आचार-क्रान्ति के परिणामस्वरूप उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ-संघ में बोटिक या यापनीय-परम्परा का विकास हुआ, जिसने आगमों और स्त्रीमुक्ति को स्वीकार करते हुए भी यह माना कि साधना का उत्कृष्ट मार्ग तो अचेल-धर्म ही है।। ___ लोगों के भावनात्मक और आस्थापरक-पक्ष को लेकर महावीर के पश्चात् कालान्तर में जैन धर्म में मूर्तिपूजा का विकास हुआ। यद्यपि महावीर के निर्वाण के 150 वर्ष के पश्चात् से ही जैन धर्म में मूर्तिपूजा के प्रमाण मिलने प्रारम्भ हो जाते हैं। लोहानीपुर पटना से मिली जिन-प्रतिमाएँ और कंकाली टीला मथुरा से मिली जिन-प्रतिमाएं इस तथ्य के प्रबल प्रमाण हैं कि ईसा पूर्व ही जैनों में मूर्तिपूजा की परम्परा अस्तित्व में आ गई थी। यहाँ हम मूर्तिपूजा सम्बन्धी पक्ष-विपक्ष की इस चर्चा में न पड़कर तटस्थ-दृष्टि से यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि कालक्रम से जैन धर्म की मूर्ति पूजा में अन्य परम्पराओं के प्रभाव से कैसे-कैसे परिवर्तन हुए और उसका मुनि-वर्ग के जीवन पर क्या और कैसा प्रभाव पड़ा? मन्दिर और मूर्तियों के निर्माण के साथ ही जैन-साधुओं की आचार-शैथिल्य को तेजी