________________ जैन धर्म एवं दर्शन-87 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-83 शिकार रहा। मध्ययुग में कला एवं साहित्य के क्षेत्र में जैनों का अवदान यद्यपि मध्यकाल जैनाचार की दृष्टि से शिथिलाचार एवं सुविधावाद का युग था, फिर भी कला और साहित्य के क्षेत्र में जैनों ने महनीय अवदान प्रदान किया। खजुराहो, श्रवणबेलगोल, आबू (देलवाड़ा), तारंगा, रणकपुर, देवगढ़ आदि का भव्य शिल्प और स्थापत्य-कला, जो 9वीं शती से 14 वीं शती के बीच में निर्मित हुई, आज भी जैन समाज का मस्तक गौरव से ऊँचा कर देती है। अनेक प्रौढ़ दार्शनिक एवं साहित्यिक-ग्रन्थों की रचनाएँ भी इन्हीं शताब्दियों में हुई। श्वेताम्बर-परम्परा में हरिभद्र, अभयदेव, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र, मणिभद्र, मल्लिसेन, जिनप्रभ आदि आचार्य एवं दिगम्बर-परम्परा में विद्यानन्दी शाकाटायन, प्रभाचन्द्र जैसे समर्थ विचारक भी इसी काल के हैं। मन्त्र-तन्त्र के साथ चिकित्सा के क्षेत्र में भी जैन-आचार्य आगे आये। इस युग के भट्टारकों और जैन-यतियों ने साहित्य एवं कलात्मक मन्दिरों का निर्माण तो किया ही, साथ ही चिकित्सा के माध्यम से जनसेवा के क्षेत्र में भी वे पीछे नहीं रहे। लोकाशाह के पूर्व की धर्मक्रान्तियाँ भारतीय-श्रमण-परम्परा एक क्रान्तिधर्मी परम्परा रही है। उसने सदैव ही स्थापित रुढ़ि और अन्धविश्वासों के प्रति क्रान्ति का स्वर मुखर किया है। इसके अनुसार, वे परम्परागत धार्मिक-रूढ़ियाँ, जिनके पीछे कोई सार्थक प्रयोजन निहित नहीं है, धर्म के शव के समान है। शव पूजा या प्रतिष्ठा का विषय नहीं होता, बल्कि विसर्जन का विषय होता है, अतः अन्ध और रुढ़िवादी परम्पराओं के प्रति क्रान्ति आवश्यक और अपरिहार्य होती है। श्रमण धर्मों अथवा जैन धर्म का प्रादुर्भाव इसी क्रान्ति-दृष्टि के परिणामस्वरूप हुआ है। भगवान् ऋषभदेव ने अपने युग के अनुरूप लौकिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में अपनी व्यवस्थायें दी थी। परवर्ती, तीर्थकरों ने अपने युग और परिस्थिति के अनुरूप उसमें भी परिवर्तन कियें। परिवर्तन और संशोधन का यह क्रम महावीर के युग तक चला।