________________ जैन धर्म एवं दर्शन-88 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-84 भगवान् महावीर ने भगवान् ‘पार्श्वनाथ के धर्म-मार्ग और आचार-व्यवस्था में अपने युग के अनुरूप विविध परिवर्तन किये। भगवान् महावीर ने जो आचार-व्यवस्था दी थी, उसमें भी देश, काल और व्यक्तिगत परिस्थितियों के कारण कालान्तर में परिवर्तन आवश्यक हुए। फलतः, जैनाचार्यों ने महावीर के साधना-मार्ग और आचार-व्यवस्था को उत्सर्ग मार्ग मानते हुए अपवाद मार्ग के रूप में देशकालगत परिस्थितियों के आधार पर नवीन मान्यताओं को स्थान दिया। अपवाद मार्ग की सृजना के साथ जो सुविधावाद जैन-संघ में प्रविष्ट हुआ, वह कालान्तर में आचार-शैथिल्य का प्रतीक बन गया। उस आचार-शैथिल्य के प्रति भी युग-युग में सुविहित मार्ग के समर्थक आचार्यों ने धर्मक्रान्तियाँ या क्रियोद्धार किये। ___ जैन धर्म एक गत्यात्मक-धर्म है। अपने मूल तत्त्वों को संरक्षित रखते हुए उसने देश, काल और परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ-साथ अपनी व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन किया, अतः विभिन्न परम्पराओं के जैन आचार्यों के द्वारा की गई धर्मक्रान्तियाँ जैन धर्म के लिए कोई नई बात नहीं थी, अपितु इसकी क्रान्तधर्मी विचार-दृष्टि का ही परिणाम था। लोकाशाह के पूर्व भी धर्मक्रान्तियाँ हुई थी। उन धर्मक्रान्तियों या क्रियोद्धार की घटनाओं का हम संक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं जैसा कि पूर्व में संकेत किया गया है कि भगवान् महावीर ने भी भगवान् पार्श्वनाथ की आचार-व्यवस्था को यथावत् रूप में स्वीकार नहीं किया था। यह ठीक है कि भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर के मूलभूत सिद्धान्तों में मौलिक अन्तर न हो, किन्तु उनकी आचार-व्यवस्थायें तो भिन्न-भिन्न रही ही हैं, जिनका जैनागमों में अनेक स्थानों पर निर्देश प्राप्त होता है। महावीर की परम्परा में इन दोनों महापुरुषों की आचार-व्यवस्थाओं का समन्वय प्रथमतः सामायिक-चारित्र और छेदोपस्थापनीय-चारित्र (पड्चमहाव्रतारोपण) के रूप में हुआ, फलतः, मुनि-आचार में एक द्विस्तरीय व्यवस्था की गई। भगवान् महावीर के द्वारा स्थापित यह आचार-व्यवस्था बिना किसी मौलिक परिवर्तन के भद्रबाहु के युग तक चलती रही, किन्तु उसमें भी देशकालगत परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ आंशिक-परिवर्तन तो अवश्य ही आये। उन परिस्थितिजन्य