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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-86 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-82 से बच न सका। अध्यात्मवादी जैनधर्म में भी तन्त्र का प्रभाव आया। हिन्दू-परम्परा के अनेक देवी-देवताओं को प्रकारान्तर से यक्ष, यक्षी अथवा शासन-देवियों के रूप में जैन-देवमण्डल का सदस्य स्वीकार कर लिया गया, उनकी कृपा या उनसे लौकिक-सुख-समृद्धि प्राप्त करने के लिए अनेक तान्त्रिक विधि-विधान बने। जैन-तीर्थकर तो वीतराग था, अतः वह न तो भक्तों का कल्याण कर सकता था, न दुष्टों का विनाश, फलतः जैनों ने यक्ष-यक्षियों या शासन-देवता को भक्तों के कल्याण की जवाबदारी देकर अपने को युग-परम्परा के साथ समायोजित कर लिया। इसी प्रकार, भक्ति-मार्ग का प्रभाव भी इस युग में जैन-संघ पर पड़ा। तन्त्र एवं भक्ति-मार्ग के संयुक्त प्रभाव से जिन-मन्दिरों में पूजा-यज्ञ आदि के रूप में विविध प्रकार के कर्मकाण्ड अस्तित्व में आये। वीतराग जिन-प्रतिमा की हिन्दू-परम्परा की षोडशोपचार-पूजा की तरह सत्रहभेदी पूजा की जाने लगी। न केवल वीतराग जिन-प्रतिमा को वस्त्राभूषणादि से सुसज्जित किया गया, अपितु उसे फल-नैवेद्य आदि भी अर्पित किये जाने लगे। यह विडम्बना ही थी कि हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा-पद्धति के विवेकशून्य अनुकरण के द्वारा नवग्रह आदि के साथ-साथ तीर्थंकर या सिद्ध परमात्मा का भी आह्वान और विसर्जन किया जाने लगा। यद्यपि यह प्रभाव श्वेताम्बर-परम्परा में अधिक आया था, किन्तु दिगम्बर-परम्परा भी इससे बच न सकी। विविध प्रकार के कर्मकाण्ड और मन्त्र-तन्त्र का प्रवेश उनमें भी हो गया था, जिन–मन्दिर में यज्ञ होने लगे थे। श्रमण-परम्परा की वर्ण-मुक्त सर्वोदयी धर्म-व्यवस्था का परित्याग करके उसमें शूद्र की मुक्ति के निषेध और शूद्र-जल-त्याग पर बल दिया गया। यद्यपि बारहवीं एवं तेरहवीं शती में हेमचन्द्र आदि अनेक समर्थ जैन-दार्शनिक और साहित्यकार हुए, फिर भी जैन-परम्परा में सहभागी अन्य धर्म-परम्पराओं से जो प्रभाव आ गये थे, उनसे उसे मुक्त करने का कोई सशक्त और सार्थक प्रयास हुआ हो, ऐसा ज्ञान नहीं होता। यद्यपि सुधार के कुछ प्रयत्नों एवं मतभेदों के आधार पर श्वेताम्बर–परम्परा में तपागच्छ, अंचलगच्छ आदि अस्तित्व में आये और उनकी शाखा-प्रशाखाएँ भी बनी, फिर भी लगभग 15वीं शती तक जैन संघ इसी स्थिति का
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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