________________ जैन धर्म एवं दर्शन-84 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-80 कराए जाते हैं, अतः स्पष्ट है कि विवाहादि-संस्कारों के सम्बन्ध में भी जैन परम्परा पर हिन्दू-परम्परा का स्पष्ट प्रभाव है। वस्तुतः, मन्दिर एवं जिनबिम्ब-प्रतिष्ठा आदि से सम्बन्धित अधिकांश अनुष्ठान ब्राह्मण-परम्परा की देन हैं और उसकी मूलभूत प्रकृति कहे जा सकते हैं। किसी भी परम्परा के लिए अपनी सहवर्ती परम्परा से पूर्णतया अप्रभावित रह पाना कठिन है और इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि जैन परम्परा की अनुष्ठान-विधियों में ब्राह्मण-परम्परा का प्रभाव आया, किन्तु श्रमण परम्परा के लिए यह विकृति-रूप ही था वस्तुतः, मन्दिर और मूर्ति निर्माण के साथ चैत्यवास और भट्टारक-परम्परा का विकास हुआ, जिसके विरोध में संविग्न-परम्परा और अमूर्तिपूजक-परम्पराएं अस्तित्व में आई। . चैत्यवास और भट्टारक-परम्परा का उदय मूर्ति और मन्दिर निर्माण के साथ उनके संरक्षण और व्यवस्था का प्रश्न आया, फलतः दिगम्बर परम्परा में भट्टारक-सम्प्रदाय और श्वेताम्बर में चैत्यवास का विकास लगभग ईसा की पाँचवीं शती में हुआ। यद्यपि जिन-मन्दिर और जिन-प्रतिमा के निर्माण के पुरातात्त्विक प्रमाण मौर्यकाल से तो स्पष्ट रूप में मिलने लगते हैं। शकं और कुषाण युग में इसमें पर्याप्त विकास हुआ, फिर भी ईसा की 5वीं शती से 12वीं शती के बीच जैन शिल्प अपने सर्वोत्तम रूप को प्राप्त होता है। यह वस्तुतः चैत्यवास की देन है। दोनों परम्पराओं में इस युग में मुनि वनवास को छोड़कर चैत्यों, जिनमन्दिरों में रहने लगे थे। केवल इतना ही नहीं, वे इन चैत्यों की व्यवस्था भी करने लगे थे। अभिलेखों से तो यहाँ तक सूचना मिलती है कि न केवल चैत्यों की व्यवस्था के लिए, अपितु मुनियों के आहार ओर तेलमर्दन आदि के लिए भी संभ्रान्त-वर्ग से दान प्राप्त किये जाते थे। इस प्रकार, इस काल में जैन-साधु मठाधीश बन गये थे, फिर भी इस सुविधाभोगी वर्ग के द्वारा जैन दर्शन, साहित्य एवं शिल्प का जो विकास इस युग में हुआ, उसकी सर्वोत्कृष्टता से इन्कार नहीं किया जा सकता। यद्यपि इस चैत्यवास में सुविधावाद के नाम पर जो शिथिलाचार विकसित हो रहा था, उसका