________________ जैन धर्म एवं दर्शन-83 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-79 यत्पूजितं मया देव परिपूर्ण तदस्तु मे / / 2 || इसी प्रकार, पंचोपचारपूजा, अष्टद्रव्यपूजा, यक्ष का विधान, विनायक-मन्त्र स्थापना, यज्ञोपवीतधारण आदि भी जैन-परम्परा के अनुकूल नहीं है। किन्तु जब पौराणिक धर्म का प्रभाव बढ़ने लगा, तो पंचोपचारपूजा आदि विधियों का प्रवेश हुआ। दसवीं शती के अनन्तर इन विधियों को इतना महत्व प्राप्त हुआ कि पूर्व-प्रचलित विधि गौण हो गई। प्रतिमा के समक्ष रहने पर भी आह्वान सन्निविकरण, पूजन और विसर्जन क्रमशः पंचकल्याणकों की स्मृति के लिए व्यवहृत होने लगे। पूजा को वैयावृत्त का अंग माना जाने लगा तथा एक प्रकार से इसे 'आहारदान' के तुल्य महत्व प्राप्त हुआ। इस प्रकार, पूजा के समय सामायिक या ध्यान की मूल भावना में परिवर्तन हुआ और पूजा को अतिथिसंविभाग-व्रत का अंग मान लिया गया यह सभी ब्राह्मण परम्परा की अनुकृति ही हैं, यद्यपि इस सम्बन्ध में बोले जाने वाले मन्त्रों को निश्चित ही जैन रूप दे दिया गया है। जिस परम्परा में एक वर्ग ऐसा हो जो तीर्थकर के कवलाहार का भी निषेध करता हो, वही तीर्थकर की सेवा में नैवेद्य अर्पित करे, क्या यह सिद्धान्त की विडम्बना नहीं कहीं जायेगी? जैन-परम्परा ने पूजा-विधान के अतिरिक्त संस्कार–विधि में भी हिन्दू-परम्परा का अनुसरण किया गया है। . सर्वप्रथम, आचार्य जिनसेन ने 'आदिपुराण' में हिन्दू-संस्कारों को जैन-दृष्टि से संशोधित करके जैनों के लिए भी एक पूरी संस्कार-विधि तैयार की है। सामान्यतया, हिन्दुओं में जो सोलह संस्कारों की परम्परा है, उसमें निवृत्तिमूलक-परम्परा की दृष्टि से दीक्षा (संन्यासग्रहण) आदि कुछ संस्कारों की वृद्धि करके यह संस्कार-विधि तैयार की गई है। इनमें गर्भान्वय क्रिया, दीक्षान्वय क्रिया और क्रियान्वय-क्रिया-ऐसे तीन विभाग किये गये हैं। इनमें गर्भ से लेकर निर्वाण पर्यन्त तक की क्रियाएँ बताई गई है। यह स्पष्ट है कि दिगम्बर परम्परा में जो संस्कार-विधि प्रचलित हुई, वह बृहद् हिन्दू-परम्परा से प्रभावित है। श्वेताम्बर-परम्परा में किसी संस्कार-विधि का उल्लेख नहीं मिलता है, किन्तु व्यवहार में वे भी हिन्दू परम्परा में प्रचलित संस्कारों को यथावत् रूप में अपनाते हैं। उनमें आज भी विवाहादि-संस्कार हिन्दू परम्परानुसार ही ब्राह्मण-पण्डित के द्वारा सम्पन्न