________________ जैन धर्म एवं दर्शन-82 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-78 होती जा रही है। जैन धर्म में पूजा और उपासना का यह दूसरा पक्ष, जो हमारे सामने आया, वह मूलतः हिन्दू या ब्राह्मण परम्परा का प्रभाव ही है। जिन-पूजा एवं अनुष्ठान-विधियों में अनेक ऐसे मन्त्र मिलते हैं, जिन्हें ब्राह्मण परम्परा के तत्सम्बन्धी मन्त्रों का मात्र जैनीकरण कहा जा सकता है। उदाहरण के रूप में जिस प्रकार ब्राह्मण परम्परा में इष्ट देवता की पूजा के समय उसका आह्वान और विसर्जन किया जाता है, उसी प्रकार जैन परम्परा में भी पूजा के समय जिन के आह्वान और विसर्जन के मन्त्र बोले जाते हैं, यथा ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र अवतर अवतर संवोषट् / ऊँ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः / ऊँ ही णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र मम सन्निहतो भवभव वषट् / ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् स्वस्थानं गच्छ गच्छ जः जः जः। ये मन्त्र जैन दर्शन की मूलभूत मान्यताओं के प्रतिकूल हैं, क्योंकि जहाँ ब्राह्मण-परम्परा का यह विश्वास है कि आह्वान करने पर देवता आते हैं और विसर्जन करने पर चले जाते हैं, वहाँ जैन-परम्परा में लि. द्वावस्था को प्राप्त तीर्थकर न तो आहवान करने पर उपस्थित हो सकते हैं और न विसर्जन करने पर जा सकते हैं। पं. फूलचन्दजी ने 'ज्ञानपीठ पूजांजलि की भूमिका में विस्तार से इसकी चर्चा की है तथा आह्वान एवं विसर्जन–सम्बन्धी जैन-मन्त्रों की ब्राह्मण मन्त्रों से समानता भी दिखलाई है। तुलना कीजिये आवाहनं नैव जानामि नैव जानामि पूजनम् / विसर्जनं न जानामि क्षमस्व परमेश्वर / / 1 / / मन्त्रहीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनं तथैव च। तत्सर्व क्षम्यतां देव रक्ष रक्ष जिनेश्वर ||2|| - विसर्जनपाठ इसके स्थान पर ब्राह्मणधर्म में ये श्लोक उपलब्ध होते हैं आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् / . पूजनं नैव जानामि क्षमस्व परमेश्वर / / 1 / / मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन /