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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-71 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-67 यापनीय या बोटिक-संघ का उद्भव ईसा की द्वितीय शती में महावीर के निर्वाण के छ: सौ नौ वर्ष पश्चात् उत्तर भारत निर्ग्रन्थ-संघ में विभाजन की एक अन्य घटना घटित हुई, फलतः उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ-संघ सचेल एवं अचेल ऐसे दो भागों में बँट गया। पापित्यों के प्रभाव से आपवादिक रूप में एवं शीतादि के निवारणार्थ गृहीत हुए वस्त्र, पात्र आदि जब मुनि की अपरिहार्य उपधि बनने लगे, तो परिग्रह की इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोकने के प्रश्न पर आर्य कृष्ण और आर्य शिवभूति में मतभेद हो गया। आर्य कृष्ण जिनकल्प का उच्छेद बताकर गृहीत वस्त्र-पात्र को मुनिचर्या का अपरिहार्य अंग मानने लगे, जबकि आर्य शिवभूति ने इसके त्याग और जिनकल्प के आचरण पर बल दिया। उनका कहना था कि समर्थ के लिये जिनकल्प का निषेध नहीं मानना चाहिए। वस्त्र, पात्र का ग्रहण अपवाद-मार्ग है, उत्सर्ग-मार्ग तो अचेलता ही है। आर्य शिवभूति की उत्तर भारत की इस अचेल परम्परा. को श्वेताम्बरों ने बोटिक (भ्रष्ट) कहा, किन्तु आगे चलकर यह परम्परा यापूनीय के नाम से ही अधिक प्रसिद्ध हई। गोपांचल में विकसित होने के कारण यह . गोप्यसंघ नाम से भी जानी जाती थी। : 'षट्दर्शनसमुच्चय' की टीका में गुणरत्न ने गोप्यसंघ एवं यापनीय-संघ को पर्यायवाची बताया है। यापनीय-संघ की विशेषता यह थी कि एक ओर यह श्वेताम्बर-परम्परा के समान 'आचारांग', 'सूत्रकृतांग', उत्तराध्ययन', 'दशवैकालिक' आदि अर्द्धमागधी आगम-साहित्य को मान्य करता था, जो कि उसे उत्तराधिकार में ही प्राप्त हुआ था, साथ ही वह सचेल, स्त्री और अन्यतैर्थिकों की मुक्ति को स्वीकार करता था। आगम साहित्य के वस्त्र-पात्र सम्बन्धी उल्लेखों को वह साध्वियों एवं आपवादिक स्थिति में मुनियों से सम्बन्धित मानता था, किन्तु दूसरी ओर वह दिगम्बर–परम्परा के समान वस्त्र और पात्र का निषेध कर मुनि की नग्नता पर बल देता था। यापनीय मुनि नग्न रहते थे और पाणितलभोजी (हाथ में भोजन करने वाले) होते थे। इनके आचार्यों ने उत्तराधिकार में प्राप्त आगमों से गाथायें लेकर शौरसेनी–प्राकृत में अनेक ग्रन्थ बनाये। इनमें 'कषायप्राभृत', 'षट्खण्डागम', - 'भगवती आराधना', 'मूलाचार' आदि प्रसिद्ध हैं।
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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