________________ जैन धर्म एवं दर्शन-72 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-68 . दक्षिण भारत में अचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा का इतिहास ईस्वी सन् की तीसरी-चौथी शती तक अन्धकार में ही है। इस सम्बन्ध में हमें न तो विशेष साहित्यिक-साक्ष्य ही मिलते हैं और न अभिलेखीय ही। यद्यपि इस काल के कुछ पूर्व के ब्राह्मी लिपि के अनेक गुफा-अभिलेख तमिलनाडु में पाये जाते हैं, किन्तु वे श्रमणों या निर्माता के नाम के अतिरिक्त कोई जानकारी नहीं देते। तमिलनाडु में अभिलेखयुक्त जो गुफायें हैं, वे सम्भवतः निर्ग्रन्थ के समाधिमरण करने के स्थल रहे होंगे। संगम्-युग के तमिल-साहित्य से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि जैन–श्रमणों ने भी तमिल-भाषा के विकास और समृद्धि में अपना योगदान दिया था। तिरूकुरल के जैनाचार्यकृत होने की भी एक मान्यता है। ईसा की चौथी शताब्दी में तमिल देश का यह निर्ग्रन्थ-संघ कर्णाटक के रास्ते उत्तर की ओर बढ़ा, उधर उत्तर का निर्ग्रन्थ-संघ सचेल (श्वेताम्बर) और अचेलक (यापनीय) इन दो भागों में विभक्त होकर दक्षिण में गया। सचेल-श्वेताम्बरपरम्परा राजस्थान, गुजरात एवं पश्चिमी-महाराष्ट्र होती हुई उत्तर-कर्नाटक पहुँची तो अचेल यापनीय परम्परा बुन्देलखण्ड एवं विदिशा होकर विंध्य और सतपुड़ा को पार करती हुई पूर्वी-महाराष्ट्र से होकर उत्तरी-कर्नाटक पहुँची। ईसा की पाँचवी शती में उत्तरी-कर्नाटक में मृगेशवर्मा के जो अभिलेख मिले हैं, उनसे उस काल में जैनों के पॉच संघों के अस्तित्व की सूचना मिलती है- 1. निर्ग्रन्थ-संघ, 2. मूल-संघ, 3. यापनीय-संघ, 4. कुचर्क-संघ और, 5. श्वेतपट महाश्रमण-संघ। इसी काल में पूर्वोत्तर भारत में वटगोहली से प्राप्त ताम्रपत्र में पंचस्तूपान्वय के अस्तित्व की भी सूचना मिलती है। इस युग का श्वेतपट महाश्रमण-संघ अनेक कुलों एवं शाखाओं में विभक्त था, जिसका सम्पूर्ण विवरण कल्पसूत्र एवं मथुरा के अभिलेखों से प्राप्त होता है। __ महावीर के निर्वाण के पश्चात् से लेकर ईसा की पाँचवीं शती तक एक हजार वर्ष की इस सुदीर्घ अवधि में अर्द्धमागधी आगम-साहित्य का निर्माण एवं संकलन होता रहा है। अतः, आज हमें जो आगम उपलब्ध हैं, वे न तो एक व्यक्ति की रचना हैं और न एक काल की। मात्र इतना ही नहीं, एक ही आगम में विविध कालों की सामग्री संकलित है। इस अवधि