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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-70 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-66 का सम्बन्ध स्थूलिभद्र की शिष्य-प्रशिष्य परम्परा से ही है। इसी प्रकार, दक्षिण का अचेल निर्ग्रन्थ-संघ भद्रबाहु की परम्परा से और उत्तर का सचेल-निर्ग्रन्थ संघ स्थूलिभद्र की परम्परा से विकसित हुआ। इस संघ में बलिस्सहगण, उद्धेहगण, कोटिकगण, चारणगण, मानवगण, वेसवाडियंगण, उड्डवाडियगण आदि प्रमुख गण थे। इन गणों की अनेक शाखाएँ एवं कुल थे। 'कल्पसूत्र की स्थविरावली इन सबका उल्लेख तो करती है, किन्तु इसके अन्तिम भाग में मात्र कोटिकगण की वजी शाखा की आचार्य-परम्परा दी गई है, जो देवर्द्धिक्षमाश्रमण (वीर निर्वाण सं. 180) तक जाती है। स्थूलभद्र के शिष्य-प्रशिष्यों की परम्परा में उद्भूत जिन विभिन्न गणों, शाखाओं एवं कुलों की सूचना हमें 'कल्पसूत्र' की स्थविरावली से मिलती है, उसकी पुष्टि मथुरा के अभिलेखों से हो जाती है, जो 'कल्पसूत्र की स्थविरावली की प्रामाणिकता को सिद्ध करती है। दिगम्बर परम्परा में महावीर के निर्वाण से लगभग एक हजार वर्ष पश्चात् तक की जो पट्टावली उपलब्ध है, एक तो वह पर्याप्त परवर्ती है, दूसरी भद्रबाहु के नाम के अतिरिक्त उसकी पुष्टि का प्राचीन साहित्यिक और अभिलेखीय कोई साक्ष्य नहीं है। भद्रबाहु के सम्बन्ध में भी जो साक्ष्य हैं, वे पर्याप्त परवर्ती हैं। अतः, ऐतिहासिक-दृष्टि से उनकी प्रामाणिकता पर प्रश्नचिह्न लगाये जा सकते हैं। महावीर के निर्वाण से ईसा की प्रथम एवं द्वितीय शताब्दी तक के जो महत्वपूर्ण परिवर्तन उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ-संघ में हुए, उन्हें समझने के लिए अर्द्धमागधी-आगमों के अतिरिक्त मथुरा का शिल्प एवं अभिलेख हमारी बहुत-अधिक मदद करते हैं। मथुरा-शिल्प की विशेषता यह है कि तीर्थकर-प्रतिमाएँ नग्न हैं, मुनि नग्न होकर भी वस्त्र (कम्बल) से अपनी नग्नता छिपाये हुए हैं। वस्त्र के अतिरिक्त पात्र, झोली, मुखवस्त्रिका और प्रतिलेखन भी मुनि के उपकरणों में समाहित हैं। मुनियों के नाम, गण, शाखा, कुल आदि श्वेताम्बर परम्परा के 'कल्पसूत्र' की स्थविरावली से मिलते हैं। इस प्रकार, ये श्वेताम्बर परम्परा की पूर्व स्थिति के सूचक हैं। जैनधर्म में तीर्थकर-प्रतिमाओं के अतिरिक्त स्तूप के निर्माण की परम्परा भी थी, यह भी मथुरा के शिल्प से सिद्ध हो जाता है।
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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