________________ जैन धर्म एवं दर्शन-69 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-65 सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई हो, ऐसी कोई भी सूचना उपलब्ध नहीं होती। इस काल में निर्ग्रन्थ-संघ में गण और शाखा-भेद भी हुए, किन्तु वे किन दार्शनिक एवं आचार-सम्बन्धी मतभेद को लेकर हुए थे, यह ज्ञात नहीं होता है। मेरी दृष्टि में व्यवस्थागत सुविधाओं एवं शिष्य-प्रशिष्यों की परम्पराओं को लेकर ही ये गण या शाखा-भेद हुए होंगे। यद्यपि 'कल्पसूत्र' स्थविरक्ती में षडलुक रोहगुप्त से त्रैराशिक शाखा निकलने का उल्लेख हुआ है। रोहगुप्त त्रैराशिक-मत के प्रवक्ता एक निसव माने गये हैं। अतः, यह स्पष्ट है कि इन गणों एवं शाखाओं में कुछ मान्यता-भेद भी रहे होंगे, किन्तु आज हमारे पास यह जानने का कोई साधन नहीं है। ___'कल्पसूत्र' की स्थविरावली तुंगीययन-गोत्रीय आर्य यशोभद्र के दो शिष्यों माढर गोत्रीय सम्भूतिविजय और प्राची (पौर्वात्य)-गोत्रीय भद्रबाहु का उल्लेख करती हैं। 'कल्पसूत्र में गणों और शाखाओं की उत्पत्ति बताई गई है, जो एक ओर आर्य भद्रबाहु के शिष्य काश्यप-गोत्रीय गोदास से एवं दूसरी ओर स्थूलिभद्र के शिष्य-प्रशिष्यों से प्रारम्भ होती है। गोदास से गोदासगण की उत्पत्ति हुई और उसकी चार शाखाएँ ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षीया, पौण्ड्रवर्द्धनिका और दसकटिका निकली हैं। इसके पश्चात्, भद्रबाह की परम्परा कैसे आगे बढ़ी, इस सम्बन्ध में "कल्पसूत्र की स्थाविरावली में कोई निर्देश नहीं है। इन शाखाओं के नामों से भी ऐसा लगता है कि भद्रबाहु की शिष्य-परम्परा बंगाल और उड़ीसा से दक्षिण की ओर चली गई होगी। दक्षिण में गोदासगण का एक अभिलेख भी मिला है। अतः, यह मान्यता समुचित ही है कि भद्रबाह की परम्परा से ही आगे चलकर दक्षिण की अचेलक-निर्ग्रन्थ-परम्परा का विकास हुआ। श्वेताम्बर-परम्परा पाटलिपुत्र की वाचना के समय भद्रबाहु के नेपाल में होने का उल्लेख करती है, जबकि दिगम्बर-परम्परा चन्द्रगुप्त मौर्य को दीक्षित करके उनके दक्षिण जाने का उल्लेख करती है। सम्भव है कि वे अपने जीवन के अन्तिम चरण में उत्तर से दक्षिण चले गये हों। उत्तरभारत के निर्ग्रन्थ-संघ की परम्परा सम्भूतिविजय के प्रशिष्य स्थूलिभद्र के शिष्यों से आगे बढ़ी। 'कल्पसूत्र' में वर्णित गोदासगण और उसकी उपर्युक्त चार शाखाओं को छोड़कर शेष सभी गणों, कुलों और शाखाओं