________________ जैन धर्म एवं दर्शन-58 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-54 चिकनी वस्तु से प्रज्ज्वलित हुई अग्नि की भाँति विवेक-विज्ञान से उज्ज्वलता को प्राप्त हुई (धारण-ध्यान समाधिरूप) उस आत्म-संयमयोगाग्नि में (प्राण और इन्द्रियों के कर्मों को) विलीन कर देते हैं। इस प्रकार, जैनधर्म में यज्ञ के जिस आध्यात्मिक-स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, उसका अनुमोदन बौद्ध-परम्परा और वैदिक-परम्परा में हुआ है। यही श्रमण-परम्परा का हिन्दू-परम्परा को मुख्य अवदान था। स्नान आदि कर्मकाण्डों के प्रति आध्यात्मिक दृष्टिकोण __ जैन विचारकों ने बाह्य-कर्मकाण्ड सम्बन्धी विचारों को भी नई दृष्टि प्रदान की। बाह्य शौच या स्नान, जो कि उस समयं धर्म और उपासना का एक मुख्य रूप मान लिया गया था, को भी एक नया आध्यात्मिक-स्वरूप प्रदान किया गया। ‘उत्तराध्ययन' में कहा गया है कि धर्म जलाशय है और ब्रह्मचर्य घाट (तीर्थ) है, उसमें स्नान करने से आत्मा शान्त, निर्मल और शुद्ध हो जाती है। इसी प्रकार, बौद्धदर्शन में भी सच्चे स्नान का अर्थ मन, वाणी और काया से सदगुणों का सम्पादन माना गया है। न केवल जैन और बौद्ध-परम्परा में, वरन् वैदिक-परम्परा में भी यह विचार प्रबल हो गया कि यथार्थ शुद्धि आत्मा के सद्गुणों के विकास में निहित है। इस प्रकार, श्रमणों के इस चिन्तन का प्रभाव वैदिक या हिन्दू-परम्परा पर भी हुआ। ___ इसी प्रकार, ब्राह्मणों को दी जाने वाली दक्षिणा के प्रति एक नई दृष्टि प्रदान की गई और यह बताया गया कि दान की अपेक्षा, संयम ही श्रेष्ठ है। ‘उत्तराध्ययन' में कहा गया है कि प्रतिमास सहस्त्रों गायों का दान करने की अपेक्षा भी जो बाह्य-रूप में दान नहीं करता, वरन् संयम का पालन करता है, उस व्यक्ति का संयम ही अधिक श्रेष्ठ है। 'धम्मपद' में ही कहा गया है कि एक तरफ मनुष्य यदि वर्षों तक हजारों की दक्षिणा देकर प्रतिमास यज्ञ करता जाय और दूसरी तरफ यदि वह पुण्यात्मा की क्षण भर भी सेवा करे, तो यह सेवा कहीं उत्तम है, न कि सौ वर्षों तक किया हुआ यज्ञ। इस प्रकार, जैनधर्म ने तत्कालीन कर्मकाण्डात्मकमान्यताओं को एक नई दृष्टि प्रदान की और उन्हें आध्यात्मिक-स्वरूप