________________ जैन धर्म एवं दर्शन-57 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-53 ऐसे ही यज्ञ की प्रशंसा की।" फलतः, न केवल जैन-परम्परा में, वरन् बौद्ध और वैदिक-परम्पराओं में भी यज्ञ-याग के बाह्य-पक्ष का खण्डन और उसके आध्यात्मिक-स्वरूप का चित्रण उपलब्ध होता है। बुद्ध ने भी आध्यात्मिक-यज्ञ के स्वरूप का चित्रण लगभग उसी रूप में किया है, जिस रूप में उसका विवेचन उत्तराध्ययन में किया गया है। 'अंगुत्तरनिकाय' में यज्ञ के आध्यात्मिक-स्वरूप का वर्णन करते हुए बुद्ध कहते हैं कि हे ब्राह्मण! ये तीन अग्नियॉ त्याग करने और परिवर्तन करने के योग्य हैं, उनका सेवन नहीं करना चाहिये। हे ब्राह्मण! इन तीनों अग्नियों का सत्कार करें, इन्हें सम्मान प्रदान करें, इनकी पूजा और परिचर्या भलीभाँति सुख से करे। ये अग्नियाँ कौन-सी है, आह्वानीयाग्नि (आहनेयाग्नि), गार्हत्याग्नि (गाहवत्तग्नि) और दक्षिणाग्नि (दविखठाय्याग्नि)। मां-बाप को आह्वानीयाग्नि समझना चाहिये और सत्कार से उनकी पूजा करनी चाहिये। श्रमण-ब्राह्मणों को दक्षिणाग्नि समझना चाहिये और सत्कारपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिये। हे ब्राह्मण! यह लकड़ियों की अग्नि तो कभी जलानी पड़ती है, कभी उपेक्षा करनी पड़ती है और कभी उसे बुझानी पड़ती है, किन्तु ये अग्नियाँ तो सदैव और सर्वत्र पूजनीय हैं। इसी प्रकार, बुद्ध ने भी हिंसक-यज्ञों के स्थान पर यज्ञ के आध्यात्मिक एवं सामाजिकस्वरूप को प्रकट किया। इतना ही नहीं, उन्होंने सच्चे यज्ञ का अर्थ सामाजिक-जीवन में सहयोग करना बताया। श्रमणधारा के इस दृष्टिकोण के समान ही उपनिषदों एवं गीता में भी यज्ञ-याग की निन्दा की गयी है और यज्ञ की सामाजिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से विवेचना की गई है। सामाजिक-सन्दर्भ में यज्ञ का अर्थ समाज-सेवा माना गया है। निष्कामभाव से समाज की सेवा. करना 'गीता' में यज्ञ का सामाजिक-पहलू था। दूसरी ओर, गीता में यज्ञ के आध्यात्मिक-स्वरूप का विवचेन भी किया गया है। गीताकार कहता है की योगीजन संयमरूप अग्नि में श्रोत्रादि इन्द्रियों का हवन करते हैं अथवा इन्द्रियों के विषयों का इन्द्रियों में हवन करते हैं, दूसरे कुछ साधक इन्द्रियों के सम्पूर्ण कर्मों को और शरीर के भीतर रहने वाला वायु जो प्राण कहलाता है, उसके संकुचित होने, 'फैलने' आदि कर्मों को ज्ञान से प्रकाशित हुई आत्म-संयमरूप योगाग्नि में हवन करते हैं। घृतादि