________________ जैन धर्म एवं दर्शन-49 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-45 निवृत्ति या ऐकान्तिक-प्रवृत्ति के आधार पर प्रतिष्ठित नहीं हो सकती है। जैन और बौद्ध परम्पराएँ भारतीय संस्कृति का वैसे ही अभिन्न अंग है, जैसे हिन्दू-परम्परा। यदि औपनिषिदिक-धारा को वैदिकधारा से भिन्न होते हुए भी वैदिक या हिन्दू-परम्परा का अभिन्न अंग माना जाता है, तो फिर जैन और बौद्ध-परम्पराओं को उसका अभिन्न अंग क्यों नहीं माना जा सकता? यदि सांख्य और मीमांसक अनीश्वरवादी होते हुए भी आज हिन्दूधर्म-दर्शन के अंग माने जाते हैं, तो फिर जैन व बौद्ध-धर्म को अनीश्वरवादी कहकर उससे कैसे भिन्न किया जा सकता है? वस्तुतः, हिन्दू कोई एक धर्म और दर्शन न होकर, एक व्यापक परम्परा का नाम है या कहें कि वह विभिन्न वैचारिक एवं साधनात्मक परम्पराओं का समूह है, उसमें ईश्वरवाद- अनीश्वरवाद, द्वैतवाद-अद्वैतवाद, प्रवृत्ति-निवृत्ति, ज्ञान-कर्म सभी कुछ तो समाहित हैं। उसमें प्रकृति-पूजा जैसे धर्म के प्रारंभिक लक्षणों से लेकर अद्वैत की उच्च गहराइयाँ तक सभी कुछ तो उसमें सन्निविष्ट हैं। अतः, हिन्दू उस अर्थ में कोई एक धर्म नहीं है, जैसे यहूदी, ईसाई या मुसलमान / हिन्दू एक संश्लिष्ट परम्परा है, एक सांस्कृतिक-धारा है, जिसमें अनेक धाराएँ समाहित हैं। ___ अतः, जैन और बौद्ध-धर्म को हिन्दू-परम्परा से नितान्त भिन्न नहीं माना जा सकता। जैन और बौद्ध भी उसी आध्यात्मिक पक्ष के अनुयायी हैं, जिसके औपनिषिदिक-ऋषि थे। उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने भारतीय समाज के दलित-वर्ग के उत्थान तथा जन्मना जातिवाद, कर्मकाण्ड व पुरोहितवाद से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने उस धर्म का प्रतिपादन किया, जो जनसामान्य का धर्म था और जिसे कर्मकाण्डों की अपेक्षा नैतिक-सद्गुणों पर अधिष्ठित किया गया था। उन्होंने भारतीयसमाज को पुराहित-वर्ग के धार्मिक-शोषण से मुक्त किया। वे विदेशी नहीं है, इसी माटी की सन्तान हैं, वे शत-प्रतिशत भारतीय हैं। जैन, बौद्ध और औपनिषिदिक-धारा किसी एक ही मूल स्रोत के विकास हैं, और आज उन्हें उसी परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है। ___ भारतीय धर्मों, विशेषरूप से औपनिषिदिक, बौद्ध और जैन धर्मों की. जिस पारस्परिक प्रभावशीलता के अध्ययन की आज विशेष आवश्यकता है,