________________ जैन धर्म एवं दर्शन-48 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-44 वर्ग के द्वारा निम्न वर्गों के शोषण के रूप में उभर रही थी, खुलकर विरोध | किया, किन्तु हमें उसे विद्रोह के रूप में नहीं, अपितु भारतीय संस्कृति के परिष्कार के रूप में ही समझना होगा। जैन और बौद्ध धर्मों ने भारतीय संस्कृति में आ रही विकृतियों का परिशोधन कर उसे स्वस्थ बनाने हेतु एक चिकित्सक का कार्य किया है, किन्तु स्मरण रखना होगा कि चिकित्सक कभी भी शत्रु नहीं होता, मित्र ही होता है। दुर्भाग्य से पाश्चात्य-चिन्तकों के प्रभाव से भारतीय चिन्तक और किसी सीमा तक कुछ जैन और बौद्ध-चिन्तक भी यह मानने लगे हैं कि जैनधर्म और वैदिक (हिन्दू) धर्म परस्पर विरोधी धर्म हैं, किन्तु यह एक भ्रान्त अवधारणा है। चाहे अपने मूल में वैदिक एवं श्रमण-संस्कृति प्रवर्तक और निवर्तक धर्म-परम्पराओं के रूप में भिन्न-भिन्न रही हो, किन्तु आज न तो हिन्दू-परम्परा ही उस अर्थ में पूर्णतः वैदिक है और न ही जैन-बौद्ध परम्परा पूर्णतः श्रमण / आज चाहे हिन्दू धर्म हो अथवा जैन और बौद्ध धर्म हों, ये सभी अपने वर्तमान स्वरूप में वैदिक और श्रमण-संस्कृति के समन्वित रूप हैं। यह बात अलग है कि उनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति में से कोई एक पक्ष अभी भी प्रमुख है। उदाहरण के रूप में हम कह सकते हैं कि जहाँ जैनधर्म आज भी निवृत्तिप्रधान है, वहाँ हिन्दू-धर्म प्रवृत्तिप्रधान, फिर भी यह मानना उचित होगा कि ये दोनों धर्म प्रवृत्ति और निवृत्ति के समन्वय से ही निर्मित हुए हैं। जैनधर्म के अनुसार भी भगवान् ऋषभदेव ने दीक्षित होने के पूर्व प्रवृत्तिमान अर्थात् परिवार धर्म, समाज धर्म, राज्य– गर्म आदि का उपदेश दिया था। पूर्व में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि इस समन्वय का प्रथम प्रयत्न हमें 'ईशावास्योपनिषद्' में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता हैं, अतः आज जहाँ उपनिषदों को प्राचीन श्रमण-परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है, वहीं जैन और बौद्ध परम्परा को भी औपनिषिदिक-परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है। जिस प्रकार वासना और विवेक, प्रेय और श्रेय परस्पर भिन्न-भिन्न होकर भी मानव व्यक्तित्व के ही अंग हैं, इसी प्रकार, निवृत्तिप्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्तिप्रधान वैदिकधारा दोनों भारतीय संस्कृति के ही अंग हैं। वस्तुतः, कोई भी संस्कृति ऐकान्तिक