________________ जैन धर्म एवं दर्शन-47 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-43 सिद्धायिक, तीर्थंकरों की शासन-रक्षक देवियों के रूप में जैनधर्म का अंग बन गईं। इसी प्रकार, श्रुत-देवता के रूप में सरस्वती और सम्पत्ति-प्रदार के रूप में लक्ष्मी की उपासना भी जैनधर्म में ही होने लगी और हिन्दू-परम्परा का गणेश पार्श्व-यक्ष के रूप में लोकमंगल का देवता बन गया। वैदिक-परम्परा के प्रभाव से जैन मंदिरों में भी अब यज्ञ होने लगे और पूजा-विधान में हिन्दू-देवताओं की तरह तीर्थंकरों का आह्वान एवं विसर्जन किया जाने लगा। हिन्दुओं की पूजा-विधि को भी मन्त्रों में कुछ शाब्दिक-परिवर्तनों के साथ जैनों ने स्वीकार कर लिया। इन सबकी विस्तृत चर्चा आगे की गई है। इस प्रकार, जैन और बौद्ध-परम्पराओं में तप, ध्यान और समाधि की साधना गौण होकर पूजा-विधि-विधान प्रमुख हो गया। इस पारस्परिक-प्रभाव का एक परिणाम यह भी हुआ कि जहाँ हिन्दू परम्परा में ऋषभ और बुद्ध को ईश्वर के अवतार के रूप में स्वीकार कर लिया गया, वहीं जैन-परम्परा में राम और कृष्ण को शलाकापुरुष के रूप में मान्यता मिली। इस प्रकार, दोनों धाराएँ एक-दूसरे से समन्वित हुई। आज हमें उनकी इस पारस्परिक-प्रभावशीलता को तटस्थ-दृष्टि से स्पष्ट करने का प्रयास करना चाहिये, ताकि धर्मों के बीच जो दूरियाँ पैदा कर दी गयी हैं, उन्हें समाप्त किया जा सके और उनकी निकटता को भी म्यक् रूप से समझा जा सके। दुर्भाग्य से इस देश में विदेशी तत्त्वों के द्वा I केवल हिन्दू और मुसलमानों के बीच ही नहीं, अपितु जैन, बौद्ध, हिन्द . सिक्खों, जो कि बृहद भारत -परम्परा के ही अंग हैं, के बीच भी खाइयाँ खोदने का कार्य किया जाता रहा है और सामान्य रूप से यह प्रसारित किया जाता र | है कि जैन और बौद्धधर्म न केवल स्वतंत्र धर्म है, अपितु वे वैदिक-हिन्दू-परम्परा के विरोधी भी हैं। सामान्यतया, जैन और बौद्धधर्म को वैदिक धर्म के प्रति विद्रोह के रूप में चित्रित किया जाता है। यह सत्य है कि वैदिक और श्रमण परम्पराओं में कुछ मूल-भूत प्रश्नों को लेकर स्पष्ट मतभेद है। यह भी सत्य है कि जैन-बौद्ध-परम्परा ने वैदिक परम्परा की उन विकृतियों का, जो कर्मकाण्ड, पुरोहितवाद, जातिवाद और ब्राह्मण