________________ जैन धर्म एवं दर्शन-50 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-46 उसे समझने में प्राचीन स्तर के जैन-आगम, यथा- 'आचारांग', 'सूत्रकृतांग, 'ऋषिभाषित' और 'उत्तराध्ययन' आदि हमारे दिशा-निर्देशक सिद्ध हो सकते हैं। मुझे विश्वास है कि इन ग्रन्थों के अध्ययन से भारतीय विद्या के अध्येताओं को एक नई दिशा मिलेगी और यह मिथ्या विश्वास दूर हो जाएगा कि जैनधर्म, बौद्धधर्म और हिन्दूधर्म परस्पर विरोधी धर्म हैं। आचारांग में हमें ऐसे अनेक सूत्र उपलब्ध होते हैं, जो अपने भाव, शब्द-योजना और भाषा-शैली की दृष्टि से औपनिषिदिक-सूत्रों के निकट हैं। 'आचारांग' में आत्म के स्वरूप के सन्दर्भ में जो विवरण प्रस्तुत किया गया है, वह 'माण्डूक्योपनिषद्' से यथावत् मिलता है। आचारांग' में श्रमण और ब्राह्मण का उल्लेख परस्पर प्रतिस्पर्धियों के रूप में नहीं, अपितु सहगामियों के रूप में मिलता है। चाहे 'आचारांग' ‘उत्तराध्ययन' आदि जैनागम हिंसक यज्ञीय कर्मकाण्ड का निषेध करते हों, किन्तु वे ब्राह्मणों को भी उसी नैतिक एवं आध्यात्मिक-पथ का अनुगामी मानते हैं, जिस पथ पर श्रमण चल रहे थे। उनकी दृष्टि में ब्राह्मण वह है, जो सदाचार का जीवंत प्रतीक है। उनमें अनेक स्थलों पर श्रमणों और ब्राह्मणों (. .णा-माहणा) का साथ-साथ उल्लेख हुआ है। __ इसी प्रकार, ‘सूत्रकृतांग' में यद्यपि तत्कालीन दार्शनिक-मान्यताओं की समीक्षा है, किन्तु उनके साथ ही उसमें औपनिषिदिक-युग के अनेक ऋषियों यथा-विदेहनमि, बाहुक अयितदेवल, द्वैपायन, पाराशर आदि का समादरपूर्वक उल्लेख भी हुआ है। सूत्रकृतांग' स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है कि इन ऋषियों के आचार नियम उसकी आचार-परम्परा से भिन्न थे, फिर भी वह उन्हें अपनी अर्हत् परम्परा का ही पूज्य पुरुष मानता है। वह उनका महापुरुष और तपोधन के रूप में उल्लेख करता है और यह मानता है कि उन्होंने सिद्धि अर्थात् जीवन के चरम साध्य मोक्ष को प्राप्त कर लिया था। सूत्रकृतांग' की दृष्टि में ये ऋषिगण भिन्न आचार-मार्ग का पालन करते हुए भी उसकी अपनी ही परम्परा के ऋषि थे। सूत्रकृतांग में इन ऋषियों को महापुरुष, तपोधन एवं सिद्धि प्राप्त कहना तथा ‘उत्तराध्ययन' में अन्य लिंग सिद्धों का अस्तित्व मानना यही सूचित करता है कि प्राचीन काल में जैन-परम्परा अत्यन्त उदार थी और वह मानती थी