________________ जैन धर्म एवं दर्शन-38 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-34 मनुष्य (प्रवर्तक) (निवर्तक) देह चेतना वासना विवेक भोग विराग (त्याग) अभ्युदय (प्रेय) निःश्रेयस् स्वर्ग मोक्ष (निर्वाण) कर्म संन्यास प्रवृत्ति .. निवृत्ति प्रवर्तक धर्म . निवर्त्तक धर्म अलौकिक शक्तियों की उपासना आत्मोपलब्धि समर्पणमूलक यज्ञमूलक चिन्तन प्रधान देहदण्डनमूलक भक्तिमार्गकर्ममार्ग ज्ञानमार्ग तपमार्ग निवर्त्तक (श्रमण) एवं प्रवर्तक (वैदिक) धर्मों के दार्शनिक एवं सांस्कृतिक-प्रदेय प्रवर्तक और निर्वत्तक धर्मों का यह विकास भिन्न-भिन्न मनोवैज्ञानिक आधारों पर हुआ था, अतः यह स्वाभाविक था कि उनके दार्शनिक एवं सांस्कृतिक प्रदेय भिन्न-भिन्न हों। प्रवर्तक एवं निवर्त्तक धर्मों के इन प्रदेयों और उनके आधार पर उनमें रही हुई पारस्परिक भिन्नता को निम्न सारणी से स्पष्टतया समझा जा सकता है