________________ जैन धर्म एवं दर्शन-39 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-35 प्रवर्तक धर्म . निवर्त्तक धर्म 1. जैविक मूल्यों की प्रधानता 1. आध्यात्मिक-मूल्यों की प्रधानता 2. विधायक जीवन-दृष्टि 2. निषेधक जीवन-दृष्टि 3. समष्टिवादी 3. व्यष्टिवादी 4. व्यवहार में कर्म पर बल / 4. व्यवहार में नैष्कर्मण्यता का फिर भी दैविक शक्तियों की समर्थन फिर आत्मकल्याण कृपा पर विश्वास हेतु वैयक्तिक पुरुषार्थ पर बल 5. ईश्वरवादी 5. अनीश्वरवादी 6. ईश्वरीय कृपा पर विश्वास . | 6. वैयक्तिक प्रयासों पर विश्वास, .. कर्म-सिद्धांत का समर्थन 7. साधना के बाह्य-साधनों पर बल | . 7. आन्तरिक-विशुद्धता पर बल 8. जीवन का लक्ष्य स्वर्ग/ईश्वर- | 8. जीवन का लक्ष्य मोक्ष ___ सान्निध्य की प्राप्ति एवं निर्वाण की प्राप्ति 9. वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद - 9. जातिवाद का विरोध, का जन्मना आधार पर समर्थन वर्ण-व्यवस्था का केवल कर्मणाआधार पर समर्थन 10. गृहस्थ-जीवन की प्रधानता 10. संन्यास-जीवन की प्रधानता 11. सामाजिक जीवन-शैली 11. एकाकी जीवन-शैली 12. राजतन्त्र का समर्थन 12. जनतन्त्र का समर्थन 13. शक्तिशाली की पूजा 13. सदाचारी की पूजा 14. विधि-विधानों एवं कर्मकाण्डों 14. ध्यान और तप की प्रधानता __की प्रधानता। 15. ब्राह्मण-संस्था (पुरोहित-वर्ग) 15. श्रमण-संस्था का विकास का विकास 16. उपासनामूलक 16. समाधिमूलक प्रवर्तक धर्म में प्रारम्भ में जैविक मूल्यों की प्रधानता रही, वेदों में