________________ जैन धर्म एवं दर्शन-37 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-33 जीवन में उसने धन-धान्य, पुत्र, सम्पत्ति आदि की कामना की, वहीं पारलौकिक-जीवन में स्वर्ग (भौतिक सुख-सुविधाओं की उच्चतम अवस्था) की प्राप्ति को मानव-जीवन का चरम लक्ष्य घोषित किया। पुनः, आनुभविकजीवन में जब मनुष्य ने यह देखा कि अलौकिक एवं प्राकृतिक-शक्तियाँ उसकी सुख-सुविधाओं की उपलब्धि के प्रयासों को सफल या विफल बना सकती हैं, अतः उसने यह माना कि उसकी सुख-सुविधाएँ उसके अपने पुरुषार्थ पर नहीं, अपितु इन शक्तियों की कृपा पर निर्भर हैं, तो वह इन्हें प्रसन्न करने के लिये एक ओर इनकी स्तुति और प्रार्थना करने लगा, तो दूसरी ओर उन्हें बलि और यज्ञों के माध्यम से भी सन्तुष्ट करने लगा। इस प्रकार, प्रवर्तक-धर्म में दो शाखाओं का विकास हुआ - 1. श्रद्धाप्रधान भक्ति-मार्ग और 2. यज्ञ-याग-प्रधान कर्म-मार्ग। दूसरी ओर, निष्पाप और स्वतन्त्र जीवन जीने की उमंग में निर्वत्तक धर्म में निर्वाण या मोक्ष अर्थात् वासनाओं एवं लौकिक-एषणाओं से पूर्ण मुक्ति को मानव-जीवन का लक्ष्य माना और इस हेतु ज्ञान और विराग को प्रधानता दी, किन्तु ज्ञान और विराग का यह जीवन सामाजिक एवं पारिवारिक-व्यस्तताओं के मध्य सम्भाव नहीं था, अतः निवर्त्तक-धर्म मानव को जीवन के कर्म-क्षेत्र से कहीं दूर निर्जन वनखण्डों और गिरि-कन्दराओं में ले गया। उसमें जहाँ एक ओर दैहिक-मूल्यों एवं वासनाओं के निषेध पर बल दिया गया, जिससे वैराग्यमूलक तप–मार्ग का विकास हुआ, वहीं दूसरी ओर, उस निवृत्तिमूलक जीवन में चिन्तन और विमर्श के द्वार खुले, जिज्ञासा का विकास हुआ, जिससे चिन्तनप्रधान ज्ञान-मार्ग का उद्भव हुआ। इस प्रकार, निवर्तक-धर्म भी दो शाखाओं में विभक्त हो गया- 1. * ज्ञान-मार्ग एवं 2. तप–मार्ग। ___ मानव-प्रकृति के दैहिक और चैतसिक पक्षों के आधार पर प्रवर्तक और निवर्त्तक धर्मों के विकास की इस प्रक्रिया को निम्न सारिणी के माध्यम से अधिक स्पष्ट किया जा सकता है