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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-36 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-32 है, तो आदर्शात्मा उसका आध्यात्मिक-स्वभाव है, उसका निज स्वरूप है, जो निर्द्वन्द्व एवं निराकुल चैतसिक समत्व की अपेक्षा करता है। उसके लिये इन दोनों में से किसी की भी पूर्ण उपेक्षा सम्भव नहीं है। उसके जीवन की सफलता इनके बीच सन्तुलन बनाने में निहित है। उसके वर्तमान अस्तित्व के ये छोर हैं। उसकी जीवनधारा इन दोनों का स्पर्श करते हुए इनके बीच बहती है। मानव अस्तित्व के इन दोनों पक्षों के कारण धर्म के क्षेत्र में भी दो धाराओं का उद्भव हुआ- 1. वैदिकधारा और 2. श्रमणधारा श्रमणधारा के उद्भव के मनोवैज्ञानिक आधार मानव-जीवन में शारीरिक-विकास वासना को और चैतसिक-विकास विवेक को जन्म देता है। प्रदीप्त-वासना अपनी सन्तुष्टि के लिये 'भोग' की अपेक्षा रखती है, तो विशुद्ध-विवेक अपने अस्तित्व के लिये 'संयम' या . 'विराग' की अपेक्षा करता है, क्योंकि सराग-विवेक सही निर्णय देने में अक्षम होता है। वस्तुतः, वासना भोगों पर जीती है और विवेक विराग पर। यहीं दो अलग-अलग जीवन दृष्टियों का निर्माण होता है। एक का आधार वासना या भोग होता है, तो दूसरी का आधार विवेक और विराग। श्रमण-परम्परा में इनमें से पहली को मिथ्या-दृष्टि और दूसरी को सम्यक-दृष्टि के नाम से अभिहित किया गया है। उपनिषदों में इन्हें क्रमशः प्रेय और श्रेय के मार्ग कहे गये हैं। 'कठोपनिषद' में ऋषि कहता है कि प्रेय ओर श्रेय-दोनों ही मनुष्य के सामने उपस्थित होते हैं, उसमें से मन्द-बुद्धि शारीरिक योग-क्षेम अर्थात् प्रेय को और विवेकी पुरुष श्रेय को चुनता है। वासना की तुष्टि के लिये भोग और भोगों के साधनों की उपलब्धि के लिये कर्म अपेक्षित है। इसी भोगप्रधान जीवन-दृष्टि से कर्म-निष्ठा का विकास हुआ है। दूसरी ओर विवेक के लिये विराग (संयम) और विराग के लिये आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि या त्याग-मार्ग का विकास हुआ। इनमें पहली धारा से प्रवर्तक धर्म का और दूसरी से निवर्त्तक धर्म का उद्भव हुआ। प्रवर्तक धर्म का लक्ष्य भोग ही रहा, अतः उसने अपनी साधना का लक्ष्य सुविधाओं की उपलब्धि को ही बनाया। जहाँ ऐहिक
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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