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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-35 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-31 शब्द प्रचलित रहे हैं। इनमें भी 'निर्ग्रन्थ' शब्द मुख्यतः भगवान् पार्श्व और भगवान् महावीर की परम्परा का वाचक रहा है, किन्तु जहां तक आर्हत् शब्द का सम्बन्ध है, यह मूल में एक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता था। आर्हत् शब्द अर्हत् या अरहन्त के उपासकों का वाचक था और सभी श्रमण परम्पराएं, चाहे वे जैन हो, बौद्ध हों या आजीवक हों, अरहन्त की उपासक रही हैं, अतः वे सभी परम्पराएं आर्हत्-वर्ग में ही अन्तर्भूत थीं। ऋग्वैदिक काल में आर्हत् (श्रमण) और बार्हत् (वैदिक)- दोनों का अस्तित्व था और आर्हत् या व्रात्य–श्रमणधारा के परिचायक थे, किन्तु कालान्तर में जब कुछ श्रमण-परम्पराएं लुप्त हो गई तथा बौद्ध परम्परा विदेशों में अपना अस्तित्व रखते हुये भी इस भारतभूमि से नामशेष हो गई तो आर्हत् शब्द भी सिमटकर मात्र जैन-परम्परा का वाचक हो गया। इस प्रकार, आर्हत्, व्रात्य, श्रमण आदि शब्द अति प्राचीन काल से जैनधर्म के भी वाचक रहे हैं। यही कारण है कि जैन धर्म को आर्हत् धर्म, श्रमण धर्म या निवृत्तिमार्गी-धर्म भी कहा जाता है। किन्तु यहाँ हमें यह ध्यान रखना है कि आर्हत्, व्रात्य, श्रमण आदि शब्द अति प्राचीन काल से जैनधर्म के साथ अन्य निवृत्तिमार्गी धर्मों के भी वाचक रहे हैं, जबकि निर्ग्रन्थ या ज्ञातपुत्रीय श्रमण जैनों के परिचायक हैं। आगे हम श्रमणधारा या निवृत्तिमार्गी धर्म, जिसका एक अंग जैनधर्म भी है, के उदभव, विकास और उसकी विशेषताओं की चर्चा करना चाहेंगे। श्रमणधारा का उद्भव मानव–अस्तित्व द्वि-आयामी एवं विरोधाभासपूर्ण है। यह स्वभावतः परस्पर विरोधी दो भिन्न केन्द्रों पर स्थित है। वह न केवल शरीर है, और न केवल चेतना, अपितु दोनों की एक विलक्षण एकता है। यही कारण है कि उसे दो भिन्म स्तरों पर जीवन जीना होता है। शारीरिक-स्तर पर वह वासनाओं से चालित है और यहाँ उस पर यान्त्रिक-नियमों का आधिपत्य है, किन्तु चैतसिक-स्तर पर वह विवेक से शासित है, यहाँ उसमें संकल्प-स्वातन्त्र्य है। मनोविज्ञान की भाषा में, जहाँ एक ओर वह वासनात्मक अहं से अनुशासित है, तो दूसरी ओर आदर्शात्मा से प्रभावित भी है। वासनात्मक अहं उसकी शारीरिक-माँगों की अभिव्यक्ति का प्रयास
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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