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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-22 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-18 चेतना और मन की निराकुलता हमारा निज-धर्म या स्व-स्वभाव इसीलिए है कि यह हमारी स्वाभाविक मांग है, स्वाश्रित है अर्थात् अन्य किसी पर निर्भर नहीं है। आपकी चाह, आपकी चिंता, आपके मन की आकुलता सदैव ही अन्य पर आधारित है, पराश्रित है, ये पर वस्तु के संयोग से उत्पन्न होती है और उन्हीं के आधार पर बढ़ती है एवं जीवित रहती है। समता (निराकुलता) स्वाश्रित है इसीलिए स्वधर्म है, जबकि समता और तज्जनित आकुलता पराश्रित है, इसीलिए विधर्म, अधर्म है। जो स्वाश्रित या स्वाधीन है वही आनंद को प्राप्त कर सकता है, जो पराश्रित या पराधीन है उसे आनंद और शांति कहां? यहां हमें यह समझ लेना चाहिए कि पदार्थों के प्रति ममत्वभाव और उनके उपभोग में अंतर है। धर्म उनके उपभोग का विरोध नहीं करता है अपितु उनके प्रति ममत्वं-बुद्धिया ममता के भाव का विरोध करता है। जो पराया है उसे अपना समझ लेना, मान लेना अधर्म है, पाप है, क्योंकि इसी से मानसिक शांति और चेतना का समत्व भंग होता है, आकुलता और तनाव उत्पन्न होते हैं। इसे भी शास्त्रों में अनात्म में आत्म-बुद्धि या परपरिणति कहा गया है। जिस प्रकार संसार में वह प्रेमी दुःखी होता है जो किसी ऐसी स्त्री से प्रेम कर बैठता है जो उसकी अपनी होकर रहने वाली नहीं है, उसी प्रकार उन पदार्थों के प्रति जिनका वियोग अनिवार्य है, ममता रखना ही दुःखं का कारण है और जो दुःख का कारण है वही अधर्म है, पाप है। आदरणीय गोयनकाजी ने बहुत ही सुंदर बात कही है - सुख-दुःख दोनों एक से, मान और अपमान। चित्त विचलित होए नहीं, तो सच्चा कल्याण // जीवन में आते रहें, पतझड़ और बसंत। मन की समता न छूटे, तो सुख-शांति अनन्त // विषम जगत् में चित्त की, समता रहे अटूट। तो उत्तम मंगल जगे, होय दुःखों में छूट / /
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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