________________ जैन धर्म एवं दर्शन-21 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-17 है वह धर्म में जी रहा है, स्वभाव में जी रहा है। एक सच्चे धार्मिक पुरुष की जीवनदृष्टि अनुकूल एवं प्रतिकूल संयोगों में कैसी होगी इसका एक सुंदर चित्रण उर्दू शायर ने किया है, वह कहता है - लायी हयात आ गये, कजा ले चली चले चले। न अपनी खुशी आये, न अपनी खुशी गये।। जिंदगी और मौत दोनों ही स्थितियों में जो निराकुलता और शांत बना रहता है वही धार्मिक है, धर्म का प्रकटन उसी के जीवन में हुआ है। धार्मिकता की कसौटी पर नहीं है कि तुमने कितना पूजा-पाठ किया है, कितने उपवास और रोजे रखे हैं, अपितु यही है कि तुम्हारा मन कितना अनुद्विग्न और निराकुल बना है। जीवन में जब तक चाह और चिंता बनी हुई है धार्मिकता का आना सम्भव नहीं है। फिर वह चाह और चिंता परिवार की हो या शिष्य-शिष्याओं की, घर और दुकान की हो, मठ और मंदिर की, धन-सम्पत्ति की हो या पूजा-प्रतिष्ठा की, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है। जब तक जीवन में तृष्णा और स्पृहा है, दूसरों के प्रति जलन की भट्टी सुलग रही है, धार्मिकता सम्भव नहीं है। धार्मिक होने का मतलब है मन की उद्विग्नता या आकुलता समाप्त हो, मन से घृणा, विद्वेष और तृष्णा की आग शांत हो। इसीलिए गीता कहती है दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः। वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥ गीता 2/56/ जिसका मन दुःखों की प्राप्ति में भी दुःखी नहीं होता और सुख की प्राप्ति में जिसकी लालसा तीव्र नहीं होती है, जिसके मन में ममता, भय और क्रोध समाप्त हो चुके हैं वही व्यक्तिधार्मिक है, स्थित बुद्धि है, मुनि है। वस्तुतः चेतना जितनी निराकुल बनेगी उतना ही जीवन में धर्म का प्रकटन होगा। क्योंकि यह निराकुलता या समता ही हमारा निज-धर्म है, स्व-स्वभाव है। आकुलता का मतलब है आत्मा की 'पर' (पदार्थों) में उन्मुखता और निराकुलता का मतलब 'पर' से विमुख होकर स्व में स्थिति। इसीलिए जैन परम्परा में पर-परिणति को अधर्म और आत्म-परिणति को धर्म कहा गया