________________ जैन धर्म एवं दर्शन-20 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-16 यह आत्मा की निराकुलता या शांति की अवस्था है। आत्मा की इसी निराकुल दशा को हिन्दू और बौद्ध परम्परा में समाधि तथा जैन परम्परा में सामायिक या समता कहा गया है। हमारे जीवन में धर्म है, या नहीं है इसको जानने की एकमात्र कसौटी यह है कि सुख-दुःख, मान-अपमान, लाभ-हानि, जयपराजय आदि की अनुकूल एवं प्रतिकूल अवस्थाओं में हमारा मन कितना अनुद्विग्न और शांत बना रहता है। यदि अनुकूल परिस्थितियों में मन में संतोष न हो चाह और चिंता बनी रहे तथा प्रतिकूल स्थितियों में मन दुःख और पीड़ा से भर जावे तो हमें समझ लेना चाहिए कि जीवन में अभी धर्म नहीं आया है। धर्म का सीधा सम्बंध हमारी जीवनदृष्टि और जीवनशैली से है। बाह्य परिस्थितियों से हमारी चेतना जितनी अधिक अप्रभावित और अलिप्त रहेगी उतना ही जीवन में धर्म का प्रकटन होगा। क्योंकि मनुष्य के लिए यह सम्भव नहीं है कि उसके जीवन में उतार और चढ़ाव नहीं आए। सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, मान-अपमान आदिये जीवन-चक्र के दुर्निवार पहलू हैं, कोई भी इनसे बच नहीं सकता। जीवन-यात्रा का रास्ता सीधा और सपाट नहीं है, उसमें उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं। बाह्य परिस्थितियों पर आपका अधिकार नहीं है, आपके अधिकार में केवल एक ही बात है, वह यह कि आप इन अनुकूल और प्रतिकूल स्थितियों में अपने मन को, अपनी चेतना को निराकुल और अनुद्विग्न बनाए रखें, मानसिक समता और शांति को भंग नहीं होने दें। यही धर्म है। श्री गोयनका जी के शब्दों में - सुख दुःख आते ही रहें, ज्यों आवे दिन रैन। तू क्यों खोवे बावला, अपने मन की चैन।। अतः मन की चैन नहीं खोना ही धर्म और धार्मिकता है। जो व्यक्ति जीवन की अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपनी चित्त की शांति नहीं खोता है, वही धार्मिक है उसी के जीवन में धर्म का अवतरण हुआ है। कौन धार्मिक है और कौन अधार्मिक है, इसकी पहचान यही है कि किसका चित्त शांत है और किसका अशांत। जिसका चित्त या मन अंशांत है वह अधर्म में जी रहा है, विभाव में जी रहा है और जिसका मन या चित्त शांत