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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-19 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-15 हैं। धार्मिकता के आदर्श के रूप में जिस वीतराग, वीततृष्णा और अनासक्त जीवन की कल्पना की गई है, उसका अर्थ यही है कि जीवन में निराकुलता, शांति और समाधि आए। धर्म का सार यही है, फिर चाहे हम इसे कुछ भी नाम क्यों न दें। श्री सत्यनारायणजी गोयनका कहते हैं - धर्म न हिन्दू बौद्ध है, धर्म न मुस्लिम जैन। धर्म चित्त की शुद्धता, धर्म शांति सुख चैन।। कुदरत का कानून है, सब पर लागू होय। विकृत मन व्याकुल रहे, निर्मल सुखिया होय।। यही धर्म की परख है, यही धर्म का माप। जन-मन का मंगल करे, दूर करे संतापा। जिस प्रकार मलेरिया, मलेरिया है, वह न जैन है, न बौद्ध है न हिन्दू और न मुसलमान, उसी प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ आदि आध्यात्मिक विकृतियां हैं, वे भी हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं हैं, हम ऐसा नहीं कहते हैं कि यह हिंन्दूक्रोध है यह जैन या बौद्ध क्रोध है। यदिक्रोध हिन्दू,बौद्ध या जैन नहीं है तो फिर उसका उपशमन भी हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं कहा जा सकता है। विकार, विकार है और स्वास्थ्य, स्वास्थ्य है, वे हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं हैं। जिन्हें हम हिन्दू, जैन, बौद्ध या अन्य किसी धर्म के नाम से पुकारते हैं, वह विकारों के उपचार की शैली विशेष है जैसे एलोपैथी, आयुर्वेदिक, यूनानी, होम्योपैथी आदिशारीरिक रोगों के उपचार की पद्धति समता धर्म/ममता अधर्म - धर्म क्या है? इस प्रश्न का सबसे संक्षिप्त और सरल उत्तर यही है कि वह सब धर्म है, जिसमें मन की आकुलता समाप्त हो, चाह और चिंता मिटे तथा मन निर्मलता, शांति, समभाव और आनंद से भर जाए। इसीलिए महावीर ने धर्म को समता या समभाव के रूप में परिभाषित किया था। समता ही धर्म है और ममता अधर्म है। वीतराग, अनासक्त और वीततृष्णा होने में जो धार्मिक आदर्श की परिपूर्णता देखी गई, उसका कारण भी यही है कि
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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