SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-23 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-19 समता स्वभाव है और ममता विभाव है। ममता छूटेगी तो समता अपने आप आ जाएगी। स्वभाव बाहरी नहीं है, अतः उसे लाना भी नहीं है, मात्र विभाव को छोड़ना है। रोग या बीमारी हटेगी तो स्वस्थता तो आएगी ही। इसलिए प्रयत्न बीमारी को हटाने के लिए करना है। जिस प्रकार बीमारी बनी रहे और आप पुष्टिकारक पथ्य लेते रहे तो वह लाभकारी नहीं होता है, उसी प्रकार जब तक मोह और ममता बनी रहेगी, समता जीवन में प्रकट नहीं होगी। जब मोह और ममता के बादल छटेंगे तो समता का सूर्य स्वतः ही प्रकट हो जाएगा। जब मोह और ममता की चट्टानें टूटेंगी तो समता के शीतल जल का झरना स्वतः ही प्रकट होगा। जिसमें स्नान करके युग-युग का ताप शीतल हो जाएगा। मानव धर्म धर्म क्या है? इस प्रश्न पर अभी तक हमने इस दृष्टिकोण से विचार किया था कि एक चेतन सत्ता के रूप में हमारा धर्म क्या है? अब हम इस दृष्टि से विचार करेंगे कि मनुष्य के रूप में हमारा धर्म क्या है? दूसरे प्राणियों से मनुष्य को जिन मनोवैज्ञानिक आधारों से अलग कर सकते हैं, वे हैंआत्मचेतनता, विवेकशीलता और आत्मसंयमा मनुष्य के अलावा दूसरे प्राणियों में इन गुणों का अभाव देखा जाता है। मनुष्य न केवल चेतन है, अपितु आत्मचेतन है। उसकी विशेषता यह है कि उसे अपने ज्ञान की, अपनी अनुभूति की अथवा अपने भावावेशों की भी चेतना होती है। मनुष्य जब क्रोध या काम की भाव-दशा में होता है तब भी यह जानता है कि मुझे क्रोध हो रहा है या काम सता रहा है। पशु को क्रोध होता है किंतु वह यह नहीं जानता कि मैं क्रोध में हूं। उसका व्यवहार काम से प्रेरित होता है किंतु वह यह नहीं जानता है कि काम मेरे व्यवहार की प्रेरित कर रहा है। आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से पशु का व्यवहार मात्र मूलप्रवृत्यात्मक (Instinctive) है, जो अंधप्रेरणा मात्र है, किंतु मनुष्य का जीवन प्रेरणा से चालित न होकर विचार या विवेक से प्रेरित होता है। उसमें आत्मचेतनता है। ... मनुष्य और पशु में सबसे महत्वपूर्ण अंतर आत्मचेतनता के सम्बंध
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy