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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-15 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-11 आपका स्वभाव नहीं हो सकता। पुनः राग, आसक्ति, ममत्व, अहंकार, क्रोध आदि सभी 'पर' की अपेक्षा करते हैं, उनके विषय 'पर' हैं। उनकी अभिव्यक्ति अन्य के लिए होती है। राग, आसक्तिया ममत्व किसी पर होगा। इसी प्रकार क्रोध या अहंकार की अभिव्यक्ति भी दूसरे के लिए है। इन सबके कारण सदैव ही बाह्य जगत् में होते हैं, ये स्वतः नहीं होते, परतः होते हैं। इसीलिए ये आत्मा के विभाव कहे जाते हैं और जो भी विभाव हैं, वे सब अधर्म हैं। जबकि जो स्वभाव है या विभाव से स्वभाव की ओर लौटने के प्रयास हैं वे सब धर्म हैं। भाषाशास्त्र की दृष्टि से धर्म शब्द 'धृ' धातु से बना है जिसका अर्थ होता है - धारण करना। सामान्यतया जो प्रजा को धारण करता है, वह धर्म है, 'धर्मो धारयते प्रजा'। इस रूप में धर्म को परिभाषित किया जाता है, किंतु मेरी दृष्टि में जो हमारे अस्तित्व या सत्ता के द्वारा धारित है अथवा जिसके आधार, अस्तित्व या सत्ता रही हुई है वही 'धर्म' है। किसी भी वस्तु का धर्मवही है जिसके कारण वह वस्तु उस वस्तु के रूप में अपना अस्तित्व रखती है और जिसके अभाव में उसकी सत्ताही समाप्त हो जाती है। उदाहरण के लिए विवेक और संयम के गुणों के अभाव में मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं रहेगा, यदि विवेक और संयम के गुण हैं तो ही मनुष्य, मनुष्य है। यदि हम मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी मानते हैं और धर्म को 'धर्मो धारयते प्रजा' के अर्थ में लेते हैं तो उस स्थिति में धर्म का अर्थ होगा - जो हमारी समाज-व्यवस्था को बनाए रखता है, वही धर्म है। वे सब बातें जो सामाजिक जीवन में बाधा उपस्थित करती हैं और हमारे स्वार्थों को पोषण देकर हमारी सामाजिकता को खण्डित करती हैं, सामाजिक जीवन में अव्यवस्था और अशांति में कारणभूत होती हैं, अधर्म हैं। इसीलिए तृष्णा, विद्वेष, हिंसा, शोषण, स्वार्थपरता आदिको अधर्म और परोपकार, करुणा, दया, सेवा आदि को धर्म कहा गया है, क्योंकि जो मूल्य हमारी सामाजिकता की स्वाभाविकवृत्ति का रक्षण करते हैं, वेधर्म हैं और उसे जो खण्डित करते हैं, वे अधर्म हैं। यद्यपि धर्म की यह व्याख्या दूसरों के संदर्भ में हैं, इसे
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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