________________ जैन धर्म एवं दर्शन-16 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-12 समाज-धर्म कह सकते हैं। स्वभाव या आत्मधर्म ऐसा तत्व है जो बाहर से लाया नहीं जाता है, वह तो विभाव के हटते ही स्वतः प्रकट हो जाता है जैसे आग के संयोग के हटते ही पानी स्वतः शीतल हो जाता है, वैसे ही धर्म के लिए कुछ करना नहीं होता, केवल अधर्म को छोड़ना होता है, विभावदशा को दूर करना होता है, क्योंकि उसे ही छोड़ा या त्यागा जा सकता है जो आरोपित होता है और विभाव होगा, स्वभाव नहीं। धर्म साधना के नाम पर जो भी प्रयास हैं, वे सब अधर्म को त्यागने के लिए है, विभाग-दशा को मिटाने के लिए हैं धर्म तो आत्मा की शुद्धता है, उसे लाना नहीं है, क्योंकि वह बाहरी नहीं है, केवल विषय कषाय रूपी मल को हटाना है। जैसे बादल के हटते प्रकाश स्वतः प्रकट हो जाता है वैसे ही अधर्म या विभाव के हटते धर्म या स्वभाव प्रकट हो जाता है। इसीलिए धर्म ओढ़ा नहीं जाता है, धर्म जिया जाता है। अधर्म आरोपित होता है, वह एक दोहरा जीवन प्रस्तुत करता है, क्योंकि उसके पापखण्ड भी दोहे होते हैं। अधार्मिकजन दूसरों से अपने प्रति जिस व्यवहार की अपेक्षा करता है, दूसरों के प्रति उसके ठीक विपरीत करना चाहता है। इसीलिएधर्म की कसौटी आत्मवत्व्यवहार माना गया। 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषांमा समाचरेत्' के पीछे भी यही ध्वनि रही है। धर्म का सार है - निश्छलता, सरलता, स्पष्टता, जहां भी इनका अभाव होगा, वहां धर्म को जिया नहीं जाएगा अपितु ओढ़ा जाएगा। वहां धर्म नहीं, धर्म का दम्भ पनपेगा और हमें याद रखना होगा कि वह धर्म का दम्भ अधार्मिकता से अधिक खतरनाक है। क्योंकि इसमें अधर्म, धर्म की पोषाक को ओढ़ लेता है, वह दिखता धर्म है, किंतु होता है अधर्म। मानव जाति का दुर्भाग्य यही है कि आज धर्म के नाम पर जो कुछ चल रहा है वह सब आरोपित है, ओढ़ा गया है और इसीलिए धर्म के नाम पर अधर्म पनप रहा है। आज धर्म को कितने ही थोथे और निष्प्राण कर्मकाण्डों से जोड़ दिया गया है, क्या पहनें और क्या नहीं पहनें, क्या खाएं और क्या नहीं खाएं, प्रार्थना के लिए मुंह किस दिशा में करें और किस दिशा में नहीं करें, प्रार्थना की भाषा क्या हो,