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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-14 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-10 गौतम पूछते हैं- भगवन् ! आत्मा क्या है? और आत्मा का अर्थ या साध्य क्या है? महावीर उत्तर देते हैं- गौतम ! आत्मा का स्वरूप 'समत्व' है और 'समत्व' को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है (भगवतीसूत्र)। यह बात न केवल दार्शनिक दृष्टि से सत्य है अपितु जीवनशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सत्य है। जीवशास्त्र (Biology) के अनुसारचेतनजीव का लक्षण आंतरिक और बाह्य संतुलन को बनाए रखना है। फ्रायड़नामक सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक का कथन है - चैत्त जीवन और स्नायुजीवन का स्वभाव यह है कि वह विक्षोभ और तनाव को मिटाकर समत्व की स्थापना करता है। विक्षोभ, तनाव और मानसिक द्वंद्वों से ऊपर उठकर शांत, निर्द्वद्व मनः स्थिति को प्राप्त करना यह हमारी स्वाभाविक अपेक्षा है और यही धर्म है। विश्व के लगभग सभी धर्मों ने समाधि, समभाव या समता को धार्मिक जीवन का मूलभूत लक्षण माना है। आचारांगसूत्र में समियाए धम्मे आरियेहिं पवेइए' (1/8/3) कहकर धर्म को 'समता' के रूप में परिभाषित किया गया है। समता धर्म है, विषमता अधर्म है। वस्तुतः वे सभी तत्व जो हमारी चेतना में विक्षोभ, तनाव या विचलन उत्पन्न करते हैं अर्थात् चेतना के संतुलन को भंग करते हैं, विभाव के सूचक हैं, इसीलिए अधर्म हैं। अक्सर हम राग-द्वेष, घृणा, आसक्ति, ममत्वं, तृष्णा, काम, क्रोध, अहंकार आदि को अधर्म (पाप) कहते हैं और क्षमा, शांति, अनासक्ति, निर्वैरता, वीतरागता, विरागता, निराकुलता आदि को धर्म कहते हैं, ऐसा क्यों है? बात स्पष्ट है। प्रथम वर्ग के तथ्य जहां हमारी आकुलता को बढ़ाते हैं, हमारे मन में विक्षोभ और चेतना में तनाव (Tension) उत्पन्न करते हैं वहीं दूसरे वर्ग के तथ्य उस आकुलता, विक्षेभि या तनाव को कम करते हैं, मिटाते हैं। पूर्वोक्त गाथा में क्षमादि भावों को जो धर्म कहा गया है, उसका आधार यही मानसिक विक्षोभ या तनाव हमारा स्वभाव या स्वलक्षण इसलिए नहीं माना जा सकता है क्योंकि हम उसे मिटाना चाहते हैं, उसका निराकरण करना चाहते हैं और जिसे आप छोड़ना चाहते हैं, मिटाना चाहते हैं, वह
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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