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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-13 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-9 कारण अवश्य होता है, गुस्सा कभी अकारण नहीं होता है। साथ ही गुस्से के लिए किसी दूसरे का होना जरुरी है, गुस्सा याक्रोध बिना किसी प्रतिपक्षी के स्वतः नहीं होता है, अकेले में नहीं होता है। किसी गुस्से से भरे आदमी को अकेले में ले जाइए, आप देखेंगे उसका गुस्सा धीरे-धीरे शांत हो रहा है - गुस्से के बाह्य कारणों एवं प्रतिपक्षी के दूर हो जाने पर गुस्सा ठहर नहीं सकता है। पुनः गुस्सा आरोपित है, वह छोड़ा जा सका है, कोई भी व्यक्ति चौबीसों घंटे क्रोध की स्थिति में नहीं रह सकता, किंतु शांत रह सकता है। अतः मनुष्य के लिए क्रोध विधर्म है, अधर्म है और शांतिस्वधर्म है, निजगुण है। क्या धर्म है और क्या अधर्म है, इसका निर्णय इसी पद्धति से सम्भव है। हमारे सामने मूल प्रश्न तो यह है कि मनुष्य का धर्म क्या है? इस प्रश्न के उत्तर के लिए हमें मानव-प्रकृति या मानव-स्वभाव को जानना होगा। जो मनुष्य का स्वभाव होगा वही मनुष्य के लिए धर्म होगा। हमें यह विचार करना है कि एक मनुष्य के रूप में हम क्या हैं ? मानव अस्तित्व द्विआयमी (Two Dimensional) है। मनुष्य विवेकात्मक चेतना से युक्त एक शरीर है। शरीर और चेतना यह हमारे अस्तित्व के दो प्रश्न हैं, किंतु इसमें भी हमारे अस्तित्व का मूल आधार जीवन एवं चेतना ही है, चेतनजीवन के अभाव में शरीर का कोई मूल्य नहीं है। शरीर का महत्व तो है, किंतु वह उसकी चेतन-जीवन से युति पर निर्भर है। चेतन-जीवन स्वतः मूल्यवान् है और शरीर परतः मूल्यावान् है। जिस प्रकार कागजी मुद्रा का स्वयं में कोई मूल्य नहीं होता उसका मूल्य सरकार की साख पर निर्भर करता है, उसी प्रकार शरीर का मूल्य चेतन-जीवन की शक्ति पर निर्भर करता है। हमारे अस्तित्व का सार हमारी चेतना है। चेतन-जीवन ही वास्तविक जीवन है। चेतना के अभाव को 'शव' कहा जाता है। चेतना ही एक ऐसा तत्व है जो 'शव' को शिव बना देता है। अतःजो चेतना का स्वभाव होगा वही हमारा वास्तविक धर्म होगा। हमें अपने 'धर्म' को समझने के लिए "चेतना' के स्वलक्षण को जानना होगा। चेतना क्या है? इस प्रश्न का उत्तर हमें भगवान् महावीर और गौतम के बीच हुए एक सम्वाद में मिलता है।
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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