________________ जैन धर्म एवं दर्शन-140 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-136 हैं, अतः इन्हें किसी सीमा तक जैन आचारमीमांसा के साथ जोड़ा जा .. सकता है। मूलसूत्र और चूलिकासूत्रों में भी कुल मिलाकर छह या सात ग्रन्थों का समावेश होता है। इनमें उत्तराध्ययनसूत्र एक प्रमुख ग्रन्थ है, जो मुख्य रूप से जैन साधना और आचार-व्यवस्था से सम्बन्धित है, किन्तु इसके 28 वें और 36 वें अध्याय में जैन-तत्त्वमीमांसा की चर्चा देखी जा सकती है। दशवैकालिकसूत्र मुख्यतः जैन-मुनि-जीवन की आचार व्यवस्था से संबंधित है। इसके अतिरिक्त, श्वेताम्बर-मूर्तिपूजक-परम्परा के अनुसार मूल-ग्रन्थों में उत्तराध्ययन, दशवैकालिक एवं आवश्यक के अतिरिक्त, ओघनियुक्ति और पिण्डनियुक्ति को भी समाहित माना जाता है। ये दोनों ग्रन्थ जैन-मुनि के सामान्य आचार और भिक्षाविधि से सम्बन्धित हैं, अतः किसी सीमा तक इनको भी जैन-आचार-मीमांसा के अंग माना जा सकता है। स्थानकवासी-परम्परा में मूल एवं मूर्तिपूजक-परम्परा में चूलिकासूत्र के नाम से प्रसिद्ध नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार माने जाते हैं। इनमें नन्दीसूत्र मूलतः पांच ज्ञानों की विवेचना करता है, अतः इसे जैन-ज्ञानमीमांसा के दार्शनिक-ग्रन्थों के अन्तर्गत रखा जा सकता है, यद्यपि नन्दीसूत्र में जैन-इतिहास के भी कुछ अर्द्ध खुले तथ्य भी समाहित हैं। अनुयोगद्वारसूत्र को जैन-दार्शनिक मान्यताओं को समझने की विश्लेषणात्मक-विधि कहा जा सकता है। जैन-दार्शनिक प्रश्नों को समझने के लिए अनेकांत-नय और निक्षेप की अवधारणाएँ तो प्रमुख हैं ही, इसके अतिरिक्त अनुयोगद्वारों की व्यवस्था भी महत्वपूर्ण रही है। जैनदर्शन का निक्षेप का सिद्धान्त यह बताता है कि किसी शब्द के अर्थ का घटन किस प्रकार, से किया जा सकता है। उसी प्रकार नय का सिद्धान्त वाक्य या कथन के अर्थ-घटन की प्रक्रिया को समझाता है। अनुयोगद्वार, किस विषय की किस-किस दृष्टि से विवेचना की जा सकती है, इसे स्पष्ट करता है, अतः यह जैन-दार्शनिक-साहित्य का एक प्रमुख ग्रन्थ माना जा सकता है। जहाँ तक आवश्यकसूत्र का प्रश्न है, वह मूलतः जैन-साधना का ग्रन्थ है। इस प्रकार जैन आगमिक साहित्य में मुख्य रूप से दार्शनिक-विषयों को इस तरह से प्रस्तुत किया गया है कि वे जैन धर्म की साधना-विधि के साथ भी जुड़ सकें। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक-परम्परा