SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-141 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-137 आगमों के अन्तर्गत प्रकीर्णक-साहित्य को भी मानती है। प्रकीर्णकों का मुख्य विषय दार्शनिक-विवेचना न होकर साधना-संबंधी विवेचना है, फिर भी वे सभी प्रायः जैन-साधना एवं आचार से संबंधित माने जा सकते हैं, क्योंकि लगभग 6-7 प्रकीर्णकों का विषय तो समाधिमरण की साधना है। ___ जैन-प्राकृत-साहित्य के अन्तर्गत श्वेताम्बर-परम्परा द्वारा मान्य आगमों के अतिरिक्त दिगम्बर-परम्परा के आगम-तुल्य अनेक ग्रन्थ भी आते हैं। इन ग्रन्थों की विशेषता यह है कि ये सभी ग्रन्थ मूलतः जैन-दार्शनिकसाहित्य का एक महत्वपूर्ण अंग हैं। इनमें, सर्वप्रथम कसायपाहुड और षट्खण्डागम का क्रम आता है। जहाँ कसायपाहुड जैन-कर्मसिद्धान्त के कर्मबन्ध के स्वरूप को स्पष्ट करता है, तो वही षट्खण्डागम जैनकर्मसिद्धान्त की मार्गणास्थान, गुणस्थान एवं जीवस्थान-सम्बन्धी अवधारणाओं की विस्तृत विवेचना प्रस्तुत करता है। इनके अतिरिक्त, मूलाचार नामक जो प्राचीन ग्रन्थ है, वह भी मुख्य रूप से जैन-आचार और विशेष रूप से मुनि आचार की विवेचना करता है। भगवतीआराधना में भी मुख्य रूप से जैन साधना और विशेष रूप से समाधिमरण की साधना का विवेचन है। इसके अतिरिक्त, जैन-दर्शन-साहित्य के रूप में कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकायसार और अष्टप्राभृत, दशभक्ति आदि ग्रन्थ प्रमुख हैं। इनमें समयसार में मुख्य रूप से तो आत्मतत्त्व के स्वरूप की विवेचना है, किन्तु प्रासंगिक रूप से आत्मा के कम-आश्रव-बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष की चर्चा भी इसमें मिल जाती है। इस दृष्टि से इसे जैन-तत्त्वमीमांसा का मुख्य ग्रन्थ माना जाता है। इसी प्रकार, उनका पंचास्तिकाय नामक ग्रन्थ भी पाँच अस्तिकायों की चर्चा करने के कारण जैन-तत्त्वमीमांसा का एक प्रमुख ग्रन्थ माना गया है। प्रवचनसार, नियमसार, रयनसार, अष्टप्राभूत आदि का संबंध जैन-साधना से रहा हुआ है, अतः ये ग्रन्थ भी किसी सीमा तक जैन-तत्त्वमीमांसा और आचारमीमांसा से सबंधित रहे है। दिगम्बर-परम्परा के प्राकृत के अन्य प्रमुख ग्रन्थों में गोमट्टसार विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस ग्रन्थ का मुख्य सबन्ध तो जैन कर्म सिद्धान्त से है। इसके अतिरिक्त, दिगम्बर-परम्परा में कुछ अपभ्रंश भाषा के ग्रन्थ भी जैन दार्शनिक-ग्रन्थों में समाहित किये जा
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy