________________ जैन धर्म एवं दर्शन-139 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-135 मान्यताओं और विशेष रूप से तत्त्वमीमांसीय-अवधारणाओं का आधारभूत ग्रन्थ है। अंगआगमों में भगवतीसूत्र के पश्चात् ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृत्दशा, प्रश्नव्याकरणसूत्र और विपाकदशा का क्रम आता है। सामान्यतया देखने पर ये सभी ग्रन्थ जैन-साधकों के जीवनवृत्त और उनकी साधनाओं को ही प्रस्तुत करते हैं, फिर भी उपासकदशा में श्रावक के आचार-नियमों का विस्तृत विवेचन उपलब्ध हो जाता है। इसी प्रकार, प्रश्नव्याकरणसूत्र की वर्तमान विषय-वस्तु पांच आश्रवद्वारों और संवरद्वारों की चर्चा करती है, जो जैन आचारशास्त्र की मूलभूत सैद्धांतिक-अवधारणा से सम्बन्धित है। अन्य दृष्टि से आश्रव और संवर जैन-तत्त्व-योजना के प्रमुख अंग हैं। इसी दृष्टि से इस अंग का संबंध भी जैन-तत्त्वमीमांसा से जोड़ा जा सकता है। विपाकसूत्र के अन्तर्गत दो विभाग हैं - सुख-विपाक और दुःख-विपाक / यह ग्रन्थ यद्यपि कथारूप ही है, फिर भी इसमें व्यक्ति के कर्म के परिणामों का चिन्तन होने से इसे एक दृष्टि से जैन-दार्शनिक-साहित्य से सबंधित माना जा सकता है। जहाँ तक उपांग-साहित्य का प्रश्न है, उसके अन्तर्गत 12 ग्रन्थ आते हैं, इनमें औपपातिकसूत्र और राजप्रश्नीयसूत्र- ये दो ग्रन्थ ऐसे हैं, जिनमें क्रमशः सन्यासियों की साधना के विभिन्न रूपों का एवं आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है, अतः ये दोनों ग्रन्थ आंशिक रूप से जैन-दार्शनिक परम्परा से सबंधित माने जा सकते हैं। सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-ये तीन ग्रन्थ मुख्य रूप से जैन-खगोल और भूगोल से संबंधित हैं, उपांग-साहित्य के शेष पांचों ग्रन्थ मूलतः कथात्मक ही हैं। इनके पश्चात् छेदसूत्रों का क्रम आता है। मूर्तिपूजक परम्परा छः छेद-ग्रन्थों को मानती है, जबकि स्थानकवासी और . तेरापंथी परम्परा में छेदसूत्रों की संख्या चार मानी गयी है। स्थानकवासी-परम्परा के अनुसार, दशाश्रुतस्कंध, बृहद्कल्प, व्यवहार और निषीथ ये चार छेद ग्रन्थ हैं, जो मूर्तिपूजक परम्परा को भी मान्य हैं। इन चारों का संबंध विशेष रूप से प्रायश्चित्य और दण्ड-व्यवस्था से है। श्वेताम्बर-मूर्तिपूजक परम्परा को मान्य जीतकल्प और महानिषीथ- ये दोनों ग्रन्थ भी मूलतः तो प्रायश्चित्य और दण्डव्यवस्था से संबधित ही रहे