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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-138 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-134 प्राकृत-भाषा का जैन दार्शनिक साहित्य जैन धर्म का आधार आगम-ग्रन्थ हैं। आगम-साहित्य के सभी ग्रन्थ तो दार्शनिक साहित्य से सबंधित नहीं माने जा सकते हैं, किन्तु आगमों में कुछ ग्रन्थ अवश्य ही ऐसे हैं, जिन्हें हम दार्शनिक-साहित्य के अन्तर्गत ले सकते हैं। दार्शनिक-साहित्य के तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा और आचारमीमांसा- ये तीन प्रमुख अंग होते हैं। तत्त्वमीमांसा के अन्तर्गत सृष्टि-विज्ञान एवं खगोल-भूगोल-संबंधी कुछ चर्चा भी आ जाती है। इस दृष्टि से यदि हम प्राकृत-जैन-साहित्य और उसमें भी विशेष रूप से आगमिक साहित्य की चर्चा करें, तो उसमें निम्न आगमिक-ग्रन्थों का समावेश हो जाता है। हम उन्हें तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा एवं आचारमीमांसा की दृष्टि से ही वर्गीकृत करने का प्रयत्न करेगे। जहाँ तक तत्त्वमीमांसीयआगम-साहित्य का प्रश्न है, उसके अन्तर्गत प्रथम ग्रन्थ सूत्रकृतांग ही आता है। यद्यपि सूत्रकृतांग में जैन-आचार-संबंधी कुछ दार्शनिक-विषयों की चर्चा है, किन्तु फिर भी प्राथमिक-दृष्टि से उसका प्रतिपाद्य विषय उस युग की विभिन्न दार्शनिक-मान्यताओं की समीक्षा रहा है। इस आधार पर हम उसे प्राकृत एवं जैन आगम-साहित्य का एक महत्वपूर्ण दार्शनिक-ग्रन्थ कह सकते हैं। जहाँ तक प्रथम अंग-आगम आचारांग का प्रश्न है, वह मुख्यतः दार्शनिक-मान्यताओं के साथ-साथ जैन-साधना के मूलभूत दार्शनिक-सूत्रों को प्रस्तुत करता है। इसमें आत्मा के अस्तित्व एवं षट्जीवनिकाय के साथ किन-किन तत्त्वों का अस्तित्व मानना चाहिए - इसकी चर्चा है, किन्तु इसके साथ ही उसमें जैन आचार और विशेष रूप से मुनि-आचार की विस्तृत विवेचना है। आचारांग और सूत्रकृतांग के अतिरिक्त अंगआगमों में तीसरे और चौथे अंगआगम स्थानांग और समवायांग का क्रम आता है। ये दोनों ग्रन्थ संख्या के आधार पर निर्मित जैन-विद्या के कोषग्रन्थ कहे जा सकते हैं। इनमें विविध विषयों का सकंलन है। यह सत्य है कि इनमें कुछ दार्शनिक विषय भी समाहित किये गये हैं, किन्तु ये दोनों ग्रन्थ दार्शनिक-विषयों के अतिरिक्त जैन सृष्टिविद्या, नक्षत्रविद्या एवं खगोल-भूगोल आदि से भी सम्बन्धित हैं। पांचवें अंग-आगम के रूप में भगवतीसूत्र का क्रम आता है। निश्चिय ही, यह ग्रन्थ जैन-दार्शनिक
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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