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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-129 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-125 'इष्टोपदेश' नामक ग्रन्थ भी संस्कृत भाषा में लिखे। इसी कालखण्ड में श्वेताम्बर-परम्परा में मल्लवादी ने द्वादशारनयचक्र की रचना संस्कृत भाषा में की, जिसमें प्रमुख रूप से सभी भारतीय-दार्शनिक-परम्पराएँ पूर्व-पक्ष के रूप में प्रस्तुत की गईं और उन्हीं में से उनकी विरोधी धारा को उत्तरपक्ष के रूप में प्रस्तुत कर उनकी समीक्षा भी की गई। इसके पश्चात्, 6वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य तो प्राकृत में लिखा, किन्तु उसकी स्वोपज्ञ-टीका संस्कृत में लिखी थी। उनके पश्चात् 7 वीं शती के प्रारम्भ में कोट्टाचार्य ने भी विशेषावश्यकभाष्य पर संस्कृत भाषा में टीका लिखी थी, जो प्राचीन भारतीय-दार्शनिक-मान्यताओं का गम्भीर विवेचन प्रस्तुत करती है, साथ ही उनकी समीक्षा भी करती हैं। लगभग 7वीं शताब्दी में ही सिद्धसेन गणि ने श्वेताम्बर-परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र की टीका लिखी थी, द्वादशारनयचक्र की संस्कृत भाषा में सिंहशूरगणि ने टीका भी लिखी थी। 8वीं शताब्दी में प्रसिद्ध जैनाचार्य हरिभद्रसूरि हुए, जिन्होंने प्राकृत और संस्कृत-दोनों ही भाषाओं में अपनी. कलम चलाई। हरिभद्रसूरि ने जहाँ एक ओर अनेक जैनागमों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखीं, वहीं उन्होंने अनेक दार्शनिक-ग्रन्थों का भी संस्कृत भाषा में प्रणयन किया। उनके द्वारा रचित ये दार्शनिक-ग्रन्थ अधिक प्रसिद्ध हैंषड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय, अनेकान्तजयपताका, अनेकान्तवादप्रवेश, अनेकान्तप्रघट्ट, साथ ही बौद्ध-दार्शनिक दिड्.नाग के न्यायप्रवेश की संस्कृत-टीका भी लिखी। इसके अतिरिक्त, उन्होंने 'योगदृष्टिसमुच्चय' आदि ग्रन्थ भी संस्कृत भाषा में लिखे। हरिभद्र के समकाल में या उनके कुछ पश्चात् दिगम्बर-परम्परा में आचार्य अकलंक और विद्यानन्दसूरि हुए, जिन्होंने अनेक दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की / जहाँ अकलंक ने तत्त्वार्थसूत्र पर 'राजवर्तिक' टीका के साथ-साथ न्याय-विनिश्चय, सिद्धि-विनिश्चय, प्रमाण-संग्रह, लधीयस्त्री-अष्टशती एवं प्रमाण संग्रह आदि दार्शनिक ग्रन्थों की संस्कृत में रचना की। वही विद्यानन्द ने भी तत्वार्थसूत्र पर श्लोकवार्तिकटीका के साथ-साथ आप्त-परीक्षा, प्रमाण-परीक्षा, सत्यशासन-परीक्षा, अष्टसहस्री आदि गम्भीर दार्शनिक-ग्रन्थों की संस्कृत भाषा में रचना की। 10वीं शताब्दी के प्रारम्भ में सिद्धसेन के
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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