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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-128 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-124 युग. तक भी जीवित रही है। जहाँ तक दिगम्बर-परम्परा के आगम-तुल्य ग्रन्थों का प्रश्न है, वे भी मूलतः प्राकृत भाषा में रचित हैं- षट्खण्डागम, कसायपाहुड, मूलाचार, भगवती आराधना, तिलोयपण्णत्ति, समयसार, नियमसार, पंचास्तिकायसार, अष्टपाहुड आदि सभी मूलतः प्राकृत में निबद्ध हैं, किन्तु लगभग 9वीं शताब्दी से इन पर जो टीकाएँ है, वे या तो संस्कृत-प्राकृत मिश्रित भाषा या फिर विशुद्ध संस्कृत में ही मिलती हैं। इनमें धवला, जयधवला, महाधवल आदि प्रसिद्ध हैं, किन्तु मूलाचार, भगवती आराधना, समयसार, नियमसार, पंचास्तिकायसार आदि की टीकाएँ तो संस्कृत में ही हैं। ये सभी 9वीं शती से लेकर 15वीं शती के मध्य की हैं। संस्कृत भाषा का जैन दार्शनिक साहित्य . __ यद्यपि जैन-तत्वज्ञान से संबधित विषयों का प्रतिपादन आगमों में मिलता है, किन्तु सभी आगम प्राकृत में ही निबद्ध है। तत्वज्ञान से संबधित प्रथम सूत्र-ग्रन्थ की रचना उमास्वाति ने संस्कृत भाषा में ही की थी। उमास्वाति के काल तक विविध दार्शनिक–निकायों के सूत्र-ग्रन्थ अस्तित्व में आ चुके थे, जैसे- वैशेषिक-सूत्र, सांख्यसूत्र, योगसूत्र न्यायसूत्र आदि, अतः उमास्वाति के लिए यह आवश्यक था कि वे जैन धर्म-दर्शन से संबधित विषयों को समाहित करते हुए सूत्र-शैली में संस्कृत भाषा में किसी ग्रन्थ की रचना करें। उमास्वाति के पश्चात् सिद्धसेन, समन्तभद्र आदि ने भी जैन-दर्शन पर संस्कृत भाषा में ग्रन्थ लिखे। सिद्धसेन दिवाकर ने भारतीय-दार्शनिक-धाराओं की अवधारणाओं की समीक्षा को लेकर कुछ द्वात्रिशिंकाओं की रचना संस्कृत भाषा में की थी, जिनमें न्यायवतार प्रमुख है। इसी प्रकार, आचार्य समन्तभद्र ने भी आप्त-मीमांसा युक्त्यानुशासन एवं स्वयम्भूस्तोत्र नामक ग्रन्थों की रचना संस्कृत भाषा में की। इस प्रकार, ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी में जैन-दार्शनिक-साहित्य संस्कृत में लिखा जाने लगा। उमास्वाति ने स्वयं ही तत्वार्थसूत्र के साथ-साथ उसका स्वोपज्ञभाष्य भी संस्कृत में लिखा था। लगभग 5 वीं शताब्दी के अन्त और 6वी शताब्दी में प्रारम्भ में दिगम्बराचार्य पूज्यपाद देवनन्दि ने तत्वार्थसूत्र पर 'सर्वार्थ सिद्धि' नामक टीका संस्कृत में लिखी। इसके अतिरिक्त, उन्होंने जैन-साधना के सन्दर्भ में 'समाधि-तंत्र' और
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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