________________ जैन धर्म एवं दर्शन-127 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-123 लिखी हैं। इसके अतिरिक्त, उन्होंने हरिभद्र के पंचाशक नामक ग्रन्थ पर एक वृत्ति भी लिखी है। अभयदेव की इन रचनाओं का काल विक्रम संवत् 1120 से 1135 के मध्य है। आगमिक-व्याख्याकारों में इसके पश्चात् आम्रदेवसूरि के शिष्य नेमीचंदसूरि हुए, उन्होंने भी 12वीं शताब्दी के प्रारम्भ में उत्तराध्ययनसूत्र पर सुखबोधा नामक संस्कृत-टीका लिखी थी। यद्यपि इसमें पूर्व विक्रम संवत् 1096 में वादिवेताल शांतिसूरि ने उत्तराध्ययनसूत्र पर प्राकृत में एक टीका लिखी थी, किन्तु प्राकृत में होने के कारण हम उसकी परिगणना प्रस्तुत संस्कृत-टीकाओं में नहीं कर रहे हैं। इसके पश्चात, आगमिक-टीकाकारों में मलयगिरि का नाम आता है, इन्होंने आवश्यकबृहवृत्ति, ओघनियुक्तिवृत्ति, चन्द्रप्रज्ञप्तिवृत्ति, जीवाभिगमवृत्ति, नन्दिसूत्रटीका, पिण्डनियुक्तिवृत्ति, प्रज्ञापनावृत्ति, वृहदकल्पभाष्य –पीठिकावृत्ति, भगवती द्वितीयशतकवृत्ति, राजप्रश्नीयवृत्ति, विशेषावश्यकवृत्ति, व्यवहारसूत्रटीका आदि टीका-ग्रन्थ संस्कृत-भाषा में लिखे। इसके अतिरिक्त, उन्होंने अनेक आगमिक-प्रकरणों एवं कर्मग्रन्थों पर भी संस्कृत में टीकाएँ लिखीं, यथा- कर्मप्रकृतिटीका, पंचसग्रहटीका, क्षेत्रसमासवृत्ति, षडशीतिवृत्ति, सप्ततिकाटीका आदि। इसके पश्चात् आगमों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखने वालों में तिलकाचार्य का नाम आता है, उन्होंने जीतकल्पवृत्ति, आवश्यकनियुक्तिलघुवृत्ति, दशवैकालिकटीका, श्रावकप्रतिक्रमणलघुवृत्ति, पाक्षिकसूत्रअवचूरि आदि लिखीं। इनका काल 13वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जाता है। इसके चार शताब्दी पश्चात् आगमिक-व्याख्याकारों में उपाध्याय यशोविजयजी का क्रम आता है, इन्होंने अनेक आगमों पर टीकाएँ लिखी थीं, किन्तु इनके काल के बाद में आगमों पर संस्कृत में टीका या वृत्ति लिखने के स्थान पर प्रायः लोकभाषा (मरू गुर्जर) में टब्बे लिखे जाने लगे थे, अतः संस्कृत-लेखन का प्रचलन कम हो गया, फिर भी, वर्तमान युग में पूज्य घासीलालजी म.सा. ने स्थानकवासी परम्परा में मान्य 32 आगमों पर सस्कृत में टीकाएँ लिखी हैं। आचार्य महाप्रज्ञजी ने भी आचारांगभाष्य आदि कुछ भाष्य संस्कृत में लिखे हैं। आचार्य हस्तीमलजी ने दशवैकालिकसूत्र एवं नन्दीसूत्र पर संस्कृत में टीकाएँ लिखी है। अतः, आगमों पर संस्कृत में व्याख्या-साहित्य लिखने की यह परम्परा वर्तमान