________________ जैन धर्म एवं दर्शन-126 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-122 एवं जैन- कर्मकाण्ड का प्रचुर साहित्य संस्कृत भाषा में ही लिखित है। जैन-इतिहास के क्षेत्र में भी प्रबन्धकोश, प्रबन्ध-चिन्तामणि आदि संस्कृत भाषा के अनेक ग्रन्थ हैं इसके अतिरिक्त, काव्यशास्त्र, छन्दशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र जैनपुराण एवं जीवनचरित्र, जैनकथासाहित्य (आराधनाकथाकोश आदि) द्वयाश्रयमहाकाव्य, कुछ जैन नाटक, कुछ जैन दूतकाव्य, अनेकार्थक ग्रन्य जैसे- समयसुंदरकृत अष्टकक्षी आदि अनेक ग्रन्थ संस्कृत-साहित्य के विकास मे जैन-कवियों के अवदान के परिचायक हैं। ..... संस्कृत का जैन आगमिक व्याख्या साहित्य आगमिक-व्याख्या साहित्य में विशेषावश्यकभाष्य नामक प्राकृत कृति जिनभद्रगणि द्वारा लगभग विक्रम की छठवीं शताब्दी में प्राकृत में लिखी गई थी, किन्तु उस पर जिनभद्रगणिश्रमाश्रमण ने स्वयं ही स्वोपज्ञ-व्याख्या संस्कृत में लिखी थी। चूर्णियों के पश्चात् आगमों पर जो संस्कृत में टीकाएँ एवं वृत्तियाँ लिखी गईं, उनमें सर्वप्रथम 8वीं शताब्दी में आचार्य हरिभद्र ने, अनुयोगद्वारवृत्ति, प्रज्ञापना-व्याख्या, आवश्यक-लघुटीका, आवश्यकवृहदटीका, ओघनियुक्तिवृत्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका, जीवाभिगमलघुवृत्ति, दशवैकालिकलघुवृत्ति, दशवैकालिकवृहदवृत्ति, पिण्डनियुक्तिवृत्ति, नन्दिलघ्ययनटीका, प्रज्ञापना-प्रदेश-व्याख्या आदि टीकाएँ और व्याख्या-ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे थे। इन सभी का लेखनकाल प्रायः 8वीं शताब्दी ही माना जा सकता है। उसके पश्चात्, 10वीं शताब्दी में आचार्य शीलांक ने आचारांग और सूत्रकृतांग- इन दो अंग-आगमों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखीं। इसी क्रम में, उन्होंने जीवसमास नामक आगमिक-प्रकरण-ग्रन्थ पर संस्कृत में वृत्ति भी लिखी थी। आगे इसी क्रम में, धनेश्वरसूरि के शिष्य खरतरगच्छ के आचार्य अभयदेवसूरि ने आचारांग और सूत्रकृतांग को छोडकर 9 अंग-आगमों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखीं। उनके नाम इस प्रकार हैं- स्थानांगटीका, समवायांगटीका, भगवतीटीका, ज्ञाताधर्मकथाटीका, उपासकदशाटीका, अन्तकृतदशाटीका, अनुत्तरोपपातिकटीका, प्रश्नव्याकरणटीका और विपाकसूत्रटीका। इसी आधार पर उन्हें नवांगी टीकाकार भी कहा जाता है, किन्तु इन नव अंग-आगमों के अतिरिक्त उन्होंने कुछ उपांगों पर एवं आगमिक-प्रकरणों पर संस्कृत में कुछ टीकाएँ