________________ जैन धर्म एवं दर्शन-115 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-111 भी आगम-स्थानीय माने जाते हैं। मैं इन चारों ग्रन्थों को दिगम्बर-परम्परा की ही यापनीय-शाखा के आचार्यों की कृति मानता हूँ। इनके अतिरिक्त, आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथ समयसार, नियमसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकायसार, अष्टपाहुड दसभक्ति आदि ग्रंथों को भी आगमतुल्य ही माना जाता है। इनके साथ ही, यतिवृषभकृत तिलोयपन्नति, प्रभाचन्द्रकृत द्रव्यसंग्रह, कुन्दकुन्द-कृत वारस्स अणुवेक्खा, कार्तिकयानुप्रेक्षा आदि भी दिगम्बरपरम्परा में रचित प्राकृत के महत्वपूर्ण आगम-स्थानीय ग्रंथ हैं। दिगम्बरों में प्राकृतभाषा में मौलिक-ग्रंथ लिखने की यह परम्परा पूर्व मध्यकाल और मध्यकाल में भी यथावत् जीवित रही है। लगभग 10 वीं शती में चामुण्डराय ने गोम्मट्टसार नामक ग्रंथ के दो खण्ड जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड, जो मूलतः-कर्मसिद्धांत से सम्बंधित है, प्राकृतभाषा में ही लिखे हैं। इसी प्रकार, 12वीं शती में वसुनन्दी ने श्रावकाचार और 14वीं शती में भट्टारक पद्मनन्दी ने 'धम्मरसायण' नामक ग्रंथ भी प्राकृतभाषा में लिखे। इसके पूर्व भी, अंगपण्त्ति आदि कुछ प्राकृत-ग्रंथ दिगम्बर-आचार्यों द्वारा . लिखे गये थे। यद्यपि दिगम्बर-परम्परा में प्राकृत ग्रंथो की भाषा मुख्यतः शौरसेनी-प्राकृत ही रही है, फिर भी वसुनन्दी के श्रावकाचार और भट्टारक पद्मनन्दी के धर्मरसायण की भाषा महाराष्ट्री–प्राकृत देखी जाती है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर-आचार्यों ने अर्द्धमागधी और मुख्यतः महाराष्ट्री-प्राकृत को अपनी लेखनी का विषय बनाया। उपरोक्त ग्रंथों के साथ ही जैन कर्मसाहित्य का पंचसंग्रह नामक ग्रंथ भी प्राकृत भाषा में उपलब्ध है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में प्राकृत-भाषा-निबद्ध पंचसंग्रह उपलब्ध है, यद्यपि दिगम्बर-परम्परा में संस्कृत भाषा में भी पंचसंग्रह नामक ग्रंथ मिलते हैं। श्वेताम्बर-परम्परा में प्राचीन कम्मपयड़ी आदि और देवेन्द्रसूरि-रचित नवीन पांच कर्मग्रन्थ भी प्राकृत में ही रचित हैं। आगमिक-व्याख्या-साहित्य आगमों के पश्चात् प्राकृत-साहित्य की रचना के क्रम की दृष्टि से आगमिक-व्याख्याओं का क्रम आता है। इनमें नियुक्तियाँ प्राचीनतम हैं। रचना-काल की अपेक्षा से नियुक्तियाँ आर्यभद्र की रचनाएँ हैं और उनका .