________________ जैन धर्म एवं दर्शन-114 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-110 वेदांग ज्योतिष के समरूप होने से इन ग्रंथों की प्राचीनता को प्रमाणित करता है। उपांग-साहित्य के अन्य ग्रंथ भी कम-से-कम वल्भीवाचना अर्थात् ईसा की पांचवीं शती के पूर्व के ही है। छेदसूत्रो में से कल्प, व्यवहार, दशा और निशीथ के उल्लेख तत्त्वार्थ में है। तत्त्वार्थ के प्राचीन होने में विशेष संदेह नहीं किया जा सकता है। इनमें साधु के वस्त्र, पात्र आदि के जो उल्लेख हैं, वे भी मथुरा की उपलब्ध पुरातत्त्वीय प्राचीन सामग्री से मेल खाते हैं, अतः वे भी कम-से-कम ईसा पूर्व या ईसा की प्रथम शती की कृतियाँ हैं। अंत में, दशवैकालिक और उत्तराध्ययन की प्राचीनता भी निर्विवाद है। यद्यपि विद्वानों ने उत्तराध्ययन के कुछ अध्यायों को प्रक्षिप्त माना है, फिर भी ई.पू. में उसकी उपस्थिति से इंकार नहीं किया जा सकता है। दशवैकालिक का कुछ संक्षिप्त रूप तो आर्य श्यम्भव की रचना है- इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। नन्दी और अणुयोग अधिक प्राचीन नहीं हैं। प्रकीर्णकों में 9 का उल्लेख स्वयं नन्दीसूत्र की आगमों की सूची में है, अतः उनकी प्राचीनता भी असंदिग्ध है, यद्यपि सारावली आदि कुछ प्रकीर्णक वीरभद्र की रचना होने से 10वीं शती की रचनाएँ हैं। दिगम्बर परम्परा में मान्य आगमतुल्य ग्रंथ यद्यपि दिगम्बर-परम्परा आगमों के विच्छेद की पक्षधर है, फिर भी उसकी यह मान्यता है कि दृष्टिवाद के अंतर्गत रहे हुए पूर्वज्ञान के आधार पर कुछ आचार्यों ने आगमतुल्य ग्रंथों की रचना की थी, जिन्हें दिगम्बर परम्परा आगम स्थानीय ग्रन्थ मानकर ही स्वीकार करती है। इनमें गुणधर कृत कसायपाहुड़ प्राचीनतम है। इसके बाद पुष्पदंत और भूतबलि कृत छक्खण्डागम (षट्खण्डागम) का क्रम आता है। ज्ञातव्य है कि ये दोनों ग्रंथ प्राकृतभाषा में निबद्ध हैं और जैन-कर्मसिद्धांत से सम्बंधित हैं। इन पर लगभग नौवीं या दसवीं शती में धवल, जयधवल और महाधवल नाम से विस्तृत टीकाएँ लिखी गईं। ये टीकाएँ संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में मिलती है। किन्तु इसके पूर्व इन पर चूर्णिसूत्रों की रचना प्राकृत भाषा में हुई थी। इन दोनों ग्रंथों के अतिरिक्त दिगम्बर–परम्परा मे वट्टकेर-रचित मूलाचार और आर्य शिवभूति-रचित भगवती आराधना-ये दोनों प्राकृत-ग्रंथ